Book Title: Sharavkachar Sangraha Part 3
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

View full book text
Previous | Next

Page 506
________________ श्री वामदेवविरचित संस्कृत-भावसंग्रह अन्यः कौपीनसंयुक्तः कुरुते केशलुचनम् । शौचोपकरणं पिच्छं मुक्त्वान्यग्रन्थर्वाजितः ॥ १०५ मुनीनामनुमार्गेण चर्या सुप्रगच्छति । उपविश्य चरेद्र भिक्षां करपात्रेऽङ्गसंवृतः ॥ १०६ नास्ति त्रिकालयोगोऽस्य प्रतिमा चार्कसम्मुखा । रहस्यग्रन्थसिद्धान्तश्रवणे नाधिकारिता ॥ १०७ वीरचर्या न तस्यास्ति वस्त्रखण्डपरिग्रहात् । एवमेकादशो गेही सोत्कृष्टः प्रभवत्यसौ ॥ १०८ स्थानेष्वेकादशस्वेकं स्वगुणाः पूर्व सद्गुणेः । संयुक्ताः प्रभवन्त्येते श्रावकाणां यथाक्रमम् ॥१०९ आत्तंरौद्रं भवेद्ध्यानं मन्दभावसमाश्रितम् । मुख्यं धम्यं न तस्यास्ति गृहव्यापारसंश्रयात् ॥ ११० गौणं हि धर्मसद्धयानमुत्कृष्टं गृहमेधिनः । भद्रध्यानात्मकं घम्यं शेषाणां गृहचारिणाम् ॥ १११ जिनेज्यापात्रदानादिस्तत्र कालोचितो विधिः । भद्रध्यानं स्मृतं तद्धि गृहधर्माश्रयाद बुधैः ॥ ११२ पूजा दानं गुरूपास्तिः स्वाध्यायः संयमस्तपः । आवश्यकानि कर्माणि षडेतानि गृहाश्रमे ॥ ११३ नित्या चतुर्मुखाख्याच कल्पद्रुमाभिधानका । भवत्याष्टाह्निकी पूजा दिव्यध्वजेति पञ्चधा ॥ १.१४ स्वगेहे चैत्यगेहे वा जिनेन्द्रस्य महामहः । निर्माध्यते यथाम्नायं नित्यपूजा भवत्यसौ ॥ ११५ नृपैर्मुकुटबद्धाद्यैः सन्मण्डपे चतुर्मुखे । विधीयते महापूजा स स्याच्चतुर्मुखो महः ॥ ११६ कल्पद्रुमैरिवाशेष जगदाशा प्रपूर्यते । चक्रिभियंत्र पूजा या सा स्यात्कल्पद्रुमा भिषा ॥ ११७ नन्दीश्वरेषु देवेन्द्रद्वीपे नन्दीश्वरे महः । दिनाष्टकं विधीयेत सा पूजाष्टाह्निकी मता ॥ ११८ है ।। १०३-१०४ ।। दूसरा केवल कौपीनको धारण करता है, केशोंका लोंच करता है, शौचका उपकरण कमण्डलु और पीछीके सिवाय अन्य सर्व परिग्रहसे रहित होता है ।। १०५ ।। मुनियोंके पीछे उसी ईर्यासमितिके मार्ग से चर्याके लिए जाता है और बैठकर शरीरको संवृत रखते हुए कर पात्रसे भिक्षाको ग्रहण करता है ॥ १०६ ॥ इसके त्रिकाल योग नहीं है, और न सूर्य के सम्मुख प्रतिमा योग ही होता है । इसे प्रायश्चित्त ग्रन्थ और सिद्धान्त शास्त्र सुननेके अधिकार नहीं ।। १०७ ।। वस्त्र - खण्ड ( कोपीन ) के परिग्रह होनेसे इसके वीरचर्या भी नहीं कही गई है। इस प्रकारका ग्यारहवीं प्रतिमाका धारक यह उत्कृष्ट श्रावक है || १०८ || इन ग्यारह प्रतिमारूप स्थानोंमें अपनी-अपनी प्रतिमाके गुण पूर्व प्रतिमाओंके गुणोंके साथ यथा क्रमसे बढ़ते रहते हैं ॥ १०९ ॥ श्रावकों मन्दभाव आश्रित अल्प आर्त्त और रोद्रध्यान है । किन्तु गृह-व्यापारके आश्रयसे उनके मुख्य रूपसे धर्मध्यान नहीं होता है ।। ११० ॥ श्रावकके गोण धर्मध्यान ही उत्कृष्ट रूपसे होता है । शेष गृहस्थोंके भद्रध्यान स्वरूप धर्म्यध्यान होता है ॥ १११ ॥ गृहस्थोंके लिए जिनपूजन करना, पात्रोंको दान देना, एवं समय-समय पर गृहस्थोचित सत्कार्योंको करना यही गृहस्थ धर्माश्रित भद्रध्यान ज्ञानियोंने कहा ।। ११२ ।। पूजन करना, दान देना, गुरु जनोंकी उपासना, करना, शास्त्र-स्वाध्याय करना, संयम धारण करना और तपश्चरण - गृहाश्रम में ये छह आवश्यक कर्म माने गये हैं ॥ ११३ ॥ ४७३ | उक्त छह आवश्यकों में पूजनके पांच भेद हैं-नित्यपूजन, चतुर्मुखपूजा, कल्पद्रुमपूजा, आष्टापूजा, और दिव्य- ( इन्द्र - ) पूजा ॥ ११४ ॥ अपने घरमें या चैत्यालयमें आम्नायके अनुसार जो जिनेन्द्रदेवकी पूजा प्रतिदिन की जाती है, वह नित्यपूजा है ॥ ११५ ॥ मुकुटबद्ध राजामहाराजा आदिके द्वारा उत्तम चतुर्मुखवाले मण्डपमें जो महा पूजा की जाती है, वह चतुर्मुख पूजन है ।। ११६।। कल्पवृक्षोंके समान संसारके लोगोंकी सर्व आशाओंको पूरा करते हुए चक्रवत्तियोंके द्वारा जो पूजा की जाती है, वह कल्पदम पूजन है ।। ११७ ।। नन्दीश्वर द्वीपमें नन्दीश्वर ( तीनों ६० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574