Book Title: Sharavkachar Sangraha Part 3
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 513
________________ श्रावकाचार-संग्रह दाणं पूया मुक्खं सावयधम्मे ण सावया तेण विणा । प्राणायणं मुक्खं जहधम्मे तं विणा तहा सो वि ॥१० वाणु ण धम्मु ण चागु ण भोगु ण वहिरप्पओ पयंगो सो । लोहकचाग्निमुहे पडियो भरियो ण संदेहो ॥११ जिणपूया मुणिवाणं करेइ जो देइ सत्तिरूवेण । समाइट्ठी सावयघम्मी सो मोक्खमग्गरओ ।।१२ व्यफलेण तिलोए सुरपुज्जो हवेइ सुद्धमणो । वाणफलेण तिलोए सारसुहं भुंजदे णियदं ॥ १३ बाणं भोयणमेत्तं दिष्णइ धष्णो हवेइ साधारो । पत्तापत्तविसेसं संदसणे किं वियारेण ॥ १४ दिors सुपत्तदाणं विसेसदो होइ भोग-सग्गमही । fusariसुहं कमसो णिहिं जिणवरदेहि ||१५ इह जियसुवित्तयोयं जो ववइ जिणुत्तसत्तवेत्तेसु । सो तिहृवण रज्जफलं भुंजदि कल्लाणपंचफलं ॥१६ सविसेसे काले वविय तुवियं फलं जहा विउलं । होइ तहा तं जाणहि पत्तविसेसेसु दाणफलं ॥१७ मादु पितु पुत्त मित्तं कलत घण घण्ण वत्थु वण्हणं विहवं । संसारसारसोक्खं सव्वं जाणउ सुपत्तदाणफलं ॥ १८ ४८० श्रावक-धर्म में दान और पूजन मुख्य हैं, इनके बिना गृहस्थ श्रावक नहीं कहा जा सकता । मुनि धर्ममें ध्यान और अध्ययन मुख्य हैं, उनके बिना गृह त्याग करने पर भी वह अनगार नहीं कहा जा सकता ॥ १० ॥ जो मनुष्य दान नहीं देता, गृहस्थ धर्मका पालन नहीं करता, पापोंका यथाशक्ति त्याग नहीं करता, और न्यायपूर्वक सुखका उपभोग नहीं करता है, वह बहिरात्मा मिथ्यादृष्टि पतंगे के समान लोभकषायरूप अग्निके मुखमें गिर कर मरता है, इसमें कोई संदेह नहीं है ॥ ११ ॥ जो गृहस्थ अपनी शक्तिके अनुरूप जिन-पूजन और दान करता है और मोक्षमार्ग में निरत है, वह सम्यग्दृष्टि श्रावक धर्मका धारक है ।। १२ ।। शुद्ध मन वाला मनुष्य पूजनके फलसे तीनों लोकों में देवोंके द्वारा पूज्य होता है और दानके फलसे तीनों लोकोंमें नियमसे सार (श्रेष्ठ) सुखको भोगता है || १३ || यदि गृहस्थ मुनियोंके लिए भोजन मात्रको देता है, तो वह धन्य है । मुनिके साक्षात् दर्शन होने पर पात्र-अपात्रका विचार करनेसे क्या लाभ है || १४ || जो सुपात्रको दान दिया जाता है उसके द्वारा विशेष रूपसे भोगभूमि और स्वर्ग लोक प्राप्त होता है और क्रमसे निर्वाण -सुख भी प्राप्त होता है, ऐसा जिनेन्द्र देवोंने कहा है ।। १५ ।। जो अपने न्यायोपार्जित उत्तम घनरूपी बीजको मुनि, आर्यिका श्रावक, श्राविका, जिन-बिम्ब, जिनालय और जिनशास्त्र, इन जिनोक्त सात धर्म क्षेत्रोंमें बोता है, वह त्रिभुवनके राज्य रूप फलको और गर्भादि पंच कल्याणरूप फलको भोगता है, अर्थात् सांसारिक सर्वश्रेष्ठ सुखोंको भोग कर और तीर्थंकर होकर मोक्षको प्राप्त करता है ।। १६ ।। जिस प्रकारसे क्षेत्र विशेष में यथा काल बोया गया उत्तम बीज विपुल फलको देता है, उसी प्रकार पात्र - विशेषों में दिये गये दानका भी विशाल फल जानना चाहिए ॥ १७ ॥ माता-पिता, पुत्र, मित्र, कलत्र (स्त्री), धन, धान्य, वास्तु ( भवन ), वाहन आदिका वैभव और संसारके जितने भी श्रेष्ठ सुख प्राप्त होते हैं, वे सभी सुपात्र-दानका फल जानना चाहिए ॥ १८ ॥ Jain Education International जिणभवण-बिब-पोत्थय-संघसरूवाइ-सत्तखेत्तेसु । जं बवियं धणबीयं तमहं अणुमोयए सकयं ॥ ( श्रावकाचारसंग्रह भा० २, पृ० ४९४ ) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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