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श्रावकाचार-संग्रह
भुक्त्वा संत्यज्यते वस्तु स भोगः परिकीर्त्यते । उपभोगो सकृद्वारं भुज्यते च तयोर्मितिः ॥६८ संविभागोऽतिथीनां या किंचिद्विशिष्यते हि सः । न विद्यते तिथिर्यस्य सोऽतिथिः पात्रतां गतः ॥६९ अधिकाराः स्युश्चत्वारः संविभागेयतीशिनाम् । कथ्यमाना भवन्त्येते दाता पात्रं विधिः फलम् ॥७०
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दाता शान्तो विशुद्धात्मा मनोवाक्कायकर्मसु । दक्षस्त्यागी विनीतश्च प्रभुः षड्गुणभूषितः ७ १ ज्ञानं भक्तिः क्षमा तुष्टिः सत्त्वं च लोभवर्जनम् । गुणा दातुः प्रजायन्ते षडेते पुण्यसाधके ॥७२ पात्रं त्रिविधं प्रोक्तं सत्पात्रं च कुपात्रकम् । अपात्रं चेति तन्मध्ये तावत्पात्रं प्रकथ्यते ॥७३ उत्कृष्टमध्यमक्लिष्टभेदात् पात्रं त्रिधा स्मृतम् । तत्रोत्तमं भवेत्पात्रं सर्वसङ्गोज्झितो यतिः ॥७४ मध्यमं पात्रमुद्दिष्टं मुनिभिर्देशसंयमी । जघन्यं प्रभवेत्पात्रं सम्यग्दृष्टिरसंयतः ॥७५ रत्नत्रयोज्झितो देही करोति कुत्सितं तपः । ज्ञेयं तत्कुत्सितं पात्रं मिथ्याभावसमाश्रयात् ॥७६ न व्रतं दर्शनं शुद्धं न चास्ति नियतं मनः । यस्य चास्ति क्रिया दुष्टा तदपात्रं बुधैः स्मृतम् ॥७७ मुक्त्वात्र कुत्सितं पात्रमपात्रं च विशेषतः । पात्रदानविधिस्तत्र प्रकथ्यते यथाक्रमम् ॥७८ स्थापनमासनं योग्यं चरणक्षालनाचने । नतिस्त्रियोगशुद्धिश्च नवम्याहारशुद्धिता ॥७९
मुनिजनोंने प्रोषधविधि कहा है ॥ ६७ ॥
जो वस्तु एक बार भोग करके त्यागी जाती है, वह भोग कहा जाता है । और जो वस्तु बार-बार भोगी जाती है उसे उपभोग कहते हैं । इस प्रकारके भोग और उपभोगके परिमाण करनेको भोगोपभोग परिमाण व्रत कहते हैं ॥ ६८ ॥
अतिथियोंके लिए जो सम्यक् विभाग किया जाता है, उसे अतिथि संविभाग कहते हैं । जिसके आगमनको कोई तिथि निश्चित नहीं है, अथवा जिसके तिथि- विशेषका विचार नहीं है, अर्थात् जिसके सभी दिन एक समान हैं, उसे अतिथि कहते हैं । वह अतिथि जब किसी विशेषतासे युक्त होता है, तब वह पात्रताको प्राप्त होता है ।। ६९ ।। ऐसे पात्ररूप यतीश्वरोंक संविभाग के चार अधिकार ये कहे जानेवाले चार अधिकार होते हैं-दाता, पात्र, विधि और फल ॥ ७० ॥ जिसकी कषाय शान्त हैं, आत्मा विशुद्ध है, मन, वचन, कायके कर्मों में पवित्र है, कुशल है, त्यागी है, विनम्र है, दान देने में समर्थ है और आगे कहे जानेवाले छह गुणोंसे विभूषित है वह दाता कहलाता है ॥ ७१ ॥ ज्ञान, भक्ति, क्षमा, सन्तोष, सत्त्व और लोभ-त्याग दाताके ये छह गुण पुण्यके साधक होते हैं ॥ ७२ ॥ पात्र तीन प्रकारके कहे गये हैं-सत्पात्र, कुपात्र और अपात्र | इनमें से पहिले पात्रका स्वरूप कहते हैं ॥ ७३ ॥ उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्यके भेदसे पात्र तीन प्रकारका कहा गया है । सर्व प्रकार के परिग्रहसे रहित साधु उत्तम पात्र है | देशसंयमका धारक श्रावक मध्यम पात्र कहा गया है और असंयत- सम्यग्दृष्टि जघन्य पात्र है ।। ७४-७५ ।। जो मनुष्य रत्नत्रयसे रहित होता हुआ भी कुत्सित तपको करता है, वह मिथ्यात्व के आश्रयणसे कुत्सित पात्र अर्थात् कुपात्र जानना चाहिए ।। ७६ ।। जिसके न तो शुद्धव्रत हैं, न सम्यग्दर्शन है, न मन ही स्थिर है और जिसकी क्रियाएँ दोषयुक्त ( खोटी ) हैं उसे ज्ञानी जनोंने अपात्र कहा है || ७७ || इनमें से कुपात्रको और विशेषरूपसे अपात्रको छोड़े अर्थात् दान नहीं देवे । अब पात्रदानको विधि यथाक्रमसे कहते हैं ॥ ७८ ॥ पात्रका स्थापन ( पडिगाहन ), योग्य आसन- प्रदान, चरण प्रक्षालन, पूजन, नमस्कार, मन, वचन, कायकी शुद्धि और नवमी आहारकी शुद्धि, ये नव प्रकारकी विधि
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