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श्री वामदेवविरचित संस्कृत-भावसंग्रह अन्येषां नाधिकारित्वं ततस्तैः प्रविधीयताम् । जिनपूजां विना सर्वा दूरा सामायिकी क्रिया ॥२६ जिनपूजा प्रकर्तव्या पूजाशास्त्रोदितक्रमात् । यया संप्राप्यते भव्यैर्मोक्षसौख्यं निरन्तरम् ॥२७ । तावत्प्रातः समुत्थाय जनं स्मृत्वा विधीयताम् । प्राभातिको विधिः सर्वः शौचाचमनपूर्वकम् ॥२८ ततः पौर्वानिकी सन्ध्याक्रियां समाचरेत्सुधीः । शुद्धक्षेत्रं समाश्रित्य मन्त्रवच्छुद्धवारिणा ॥२९ पश्चात स्नानविधिं कृत्वा धौतवस्त्रपरिग्रहः । मन्त्रस्नानं व्रतस्नानं कर्तव्यं मन्त्रवत्ततः ॥३० एवं स्नानत्रयं कृत्वा शुद्धित्रयसमन्वितः । जिनावासं विशेन्मन्त्री समुच्चार्य निषेधिकाम् ॥३१ कृत्वेर्यापथसंशुद्धि जिनं स्तुत्वातिभक्तितः । उपविश्य जिनस्याने कुर्याद्विधिमिमां पुरा ॥३२ तत्रादौ शोषणं स्वाङ्गे दहनं प्लावनं ततः । इत्येवं मन्त्रविन्मन्त्री स्वकीयाङ्गं पवित्रयेत् ॥३३ हस्तशुद्धि विधायाथ प्रकुर्याच्छकलीक्रियाम् । कूटबीजाक्षरमन्त्रर्दशदिग्बन्धनं ततः ॥३४ पूजापात्राणि सर्वाणि समीपोकृत्य सादरम् । भूमिशुचि विधायोच्चैदर्भाग्निज्वलनादिभिः ॥३५ भूमिपूजां च नित्य ततस्तु नागतर्पणम् । आग्नेयदिशि संस्थाप्य क्षेत्रपालं प्रतृप्य च ॥३६ स्नानपीठं दृढं स्थाप्य प्रक्षाल्य शुद्धवारिणा । श्रीबीजं च विलिख्यात्र गन्धाद्यस्तत्प्रपूजयेत् ॥३७ परितः स्नानपीठस्य मुखापितसपल्लवान् । पूरितांस्तीर्थसत्तोयैः कलशांश्चतुरो न्यसेत् ॥३८ जिनेश्वरं समम्यय॑ मूलपीठोपरिस्थितम् । कृत्वाह्वानविधि सम्यक् प्रापयेत्स्नानपीठिकाम् ॥३९ गया है ॥ २५ ॥ अन्य जीवोंको पूजा करनेका अधिकार नहीं है, इसलिए उक्त अधिकारी जनोंको पूजा अवश्य करनी चाहिए। जिनपूजाके विना सभी सामायिक क्रिया दूर है। इसलिए सामायिक करनेवाले भव्योंको पूजाशास्त्र में कहे गये क्रमके अनुसार निरन्तर जिनपूजा करनी चाहिए, जिससे कि मोक्षका सुख प्राप्त होता है ।। २६-२७ ।। इसलिए प्रातःकाल उठकर और जिन भगवान्का स्मरण कर शौच और आचमनपूर्वक सभी प्रभातकालीन विधि करनी चाहिए ॥ २८ ॥ तत्पश्चात् बुद्धिमान् श्रावकको पवित्र क्षेत्रका आश्रय करके पौर्वाहिक सन्ध्याकालिक क्रियाका आचरण करना चाहिए। पीछे मंत्रके साथ शुद्ध जलसे स्नानविधि करके धुले हुए वस्त्र पहिरना चाहिए। इस प्रकार गृहस्थको जलस्नान, मन्त्रस्नान और व्रतस्नान करना चाहिए ॥ २९-३० ।। इस प्रकार तीनों स्नान करके मनवचनकायकी त्रिशुद्धिसे युक्त हो करके 'णमो णिसीहीए' अर्थात् निषेधिकाको नमस्कार हो, ऐसा उच्चारण करते हुए उस मन्त्रवाले श्रावकको जिनालयमें प्रवेश करना चाहिए ॥ ३१ ।। वहाँ पर ईर्यापथशुद्धि करके और अतिभक्तिसे जिनदेवकी स्तुति करके, जिनभगवानके आगे बैठ करके यह आगे कही जानेवाली विधि पहिले करनी चाहिए ॥ ३२॥
सर्वप्रथम अपने शरीर में शोषण, दहन और प्लावन करे । इस प्रकार वह मंत्रका वेत्ता मंत्री अपने शरीरको पवित्र करे ।। ३३ ॥ पीछे हाथोंको शुद्ध करके सकलीकरणकी क्रियाको करे। तत्पश्चात् कूट ( गढ़ ) बीजाक्षरवाले मंत्रोंसे दशों दिशाओंका बन्धन करे ।। ३४॥ पुनः पूजाके सभी उपकरणोंको आदरके साथ समीप स्थापित करके, भूमि शद्धि करके, और डाभ-अग्निज्वालन आदिके द्वारा भूमिकी पूजाको भलीभांतिसे सम्पन्न करके, तदनन्तर नागोंका तर्पण करके आग्नेय दिशामें क्षेत्रपालको स्थापित करके और उसे तृप्त करके दृढ़ स्नानपीठको रखकर, शुद्ध जलसे उसे धोकर, उसके बीच में 'श्री' यह बीजपद लिख करके (जिन बिम्बको विराजमान करके) गन्धादि द्रव्योंसे उसकी पूजा करे ।। ३५-३७ ।। पुनः स्नानपीठके चारों ओर उत्तम तीर्थजलसे भरे हुए, अच्छे पल्लवोंसे जिनके मुख ढके हुए हैं, ऐसे चार कलशोंको स्थापित करे ॥ ३८ ॥ पुनः मूलपीठके ऊपर विराजमान जिनेश्वरका पूजन करके आह्वान विधिको सम्यक् प्रकारसे करके
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