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उमास्वामि श्रावकाचार
१८३
योनिरन्ध्रोद्भवाः सूक्ष्मा लिङ्गसङ्घट्टतः क्षणात् । म्रियन्ते जन्तवो यत्र मैथुनं तत्परित्यजेत् ॥३७२ तिलनात्यां तिला यद्वत्-हिंस्यन्ते बहवस्तथा । जीवा योनौ च हिस्थन्ते मैथुने निन्द्यकर्मणि ॥ ३७३ मैथुन स्मराग्नि यो विध्यापयितुमिच्छति । सर्पिषा स ज्वरं मूढः प्रौढं प्रतिचिकीर्षति || ३७४ वरमालिङ्गिता वह्नितप्तायः शालभञ्जिका । न कामिनी पुनः क्वापि कामं नरकपद्धतिः ॥ ३७५ उदरान् खदिराङ्गारान् सेवमानः क्वचिन्नरः । सुखी स्यान्न पुनर्नारीजघनद्वारसेवनात् ||३७६ आस्तां केलिपरीरम्भविलासपरिभाषणम् । स्त्रीणां स्मरणमप्येवं ध्रुवं स्यादापदाप्तये ॥ ३७७ वामभ्रुवो ध्रुवं पुत्रं पितरं भ्रातरं पतिम् । आरोपयन्ति सन्देहतुलायां दुष्टचेष्टिताः ॥ ३७८ आपदामास्पदं मूलं कलेः श्वभ्रस्थ पद्धतिः । शोकस्य जन्मभू रामा कामं त्याज्या विचक्षणैः || ३७९ दुर्भगत्वं दरिद्रत्वं तिर्यक्त्वं जननिन्द्यताम् । लभन्तेऽन्य नितम्बिन्यवलम्बनविलम्बिताः ॥३८० परस्त्रीसङ्गकाङ्क्षाया रावणो दुःखभाजनम् । श्रेष्ठी सुदर्शनोऽकाङ्क्षातोऽभवत्सुखभाजनम् ॥३८१
धनधान्यादिकं ग्रन्थं परिमाय ततोऽधिके । यत्त्रिधा निःस्पृहत्वं तत्स्यादपरिग्रहव्रतम् ॥ ३८२ श्वभ्रपातमसन्तोष मारम्भं सत्सुखापहम् । ज्ञात्वा सङ्गफलं कुर्यात्परिग्रहनिवारणम् ॥३८३
भ्रम, श्रम, ग्लानि, मूर्च्छा, कम्प और बलक्षय आदि अनेक शारीरिक व्याधियाँ और आधियाँ (मानसिक पोड़ाएँ) उत्पन्न होती हैं || ३७१ || जिस मैथुन - सेवन में स्त्रीकी योनिके छिद्रमें उत्पन्न हुए अनेक सूक्ष्म जन्तु पुरुष के लिंगके संघर्षणसे क्षणमात्र में मर जाते हैं, ऐसे मेथुन सेवनका परित्याग ही करना चाहिये || ३७२ || जिस प्रकार तिलोंसे भरी हुई नालीमें उष्ण लोहशलाका प्रवेश करनेपर सभी तिल जल-भुन जाते हैं, उसी प्रकार निन्द्य मैथुन कर्मके समय योनिमें उत्पन्न होनेवाले प्रचुर जीव मारे जाते हैं ||३०३ || जो पुरुष मैथुन सेवनसे कामाग्निको शान्त करनेकी इच्छा करता है, वह मूढ़ घृत सेवनसे बढ़े हुए ज्वरका प्रतीकार करना चाहता है ||३७४ || अग्निसे सन्तप्त लोहेकी पुतलीका आलिंगन करना उत्तम है, किन्तु कामिनी स्त्रीका आलिंगन करना कभी भी अच्छा नहीं है, क्योंकि वह स्पष्टरूपसे नरककी परम्परा है || ३७५ || खैरके बड़े-बड़े घँधकते अंगारोंका सेवन करनेवाला मनुष्य क्वचित् कदाचित् सुखी हो जाय, परन्तु स्त्रीके जघन-द्वारके सेवनसे मनुष्य कभी भी कहीं भी सुखी नहीं हो सकता ||३७६ || स्त्रियोंको क्रीड़ा, आलिंगन, विलास और सम्भाषण तो दूर ही रहे, उनका स्मरणमात्र भी निश्चयसे आपत्तियों की प्राप्तिका कारण होता है || ३७७॥ दुष्ट चेष्टावाली स्त्रियाँ नियमसे पुत्र पिता भाई और पतिको सन्देहकी तुलावर आरोपण करती हैं । भावार्थ - दुश्चरित्र मातासं पुत्र, दुश्चरित्र पुत्रीसे पिता, दुश्चरित्र बहिन से भाई और दुश्चरित्र स्त्रीसे पति सदा सन्देह की तराजूपर झूलता हुआ दुखी रहता है || ३७८|| स्त्री आपत्तिका घर है, कलहकी जड़ है, नरककी नसैनी है और शोककी जन्मभूमि है । अतएव विचक्षण जनोंको स्त्रियोंका सर्वथा त्याग ही कर देना चाहिये || ३७९ || परस्त्रीसेवनके अवलम्बनसे विडम्बित पुरुष परभवमें दुर्भाग्य, दारिद्र्य, पशुपना और जन-निन्दाको प्राप्त होते हैं ||३८० || देखो - परस्त्रीके संगमकी वांछासे रावण दुःखों का भाजन हुआ और सुदर्शन सेठ परस्त्रीकी आकांक्षा नहीं करनेसे सुखोंका भाजन हुआ। ऐसा जानकर मनुष्यको परस्त्रीका त्याग कर स्वदारसन्तोष व्रत धारण करना चाहिये || ३८१ ॥ धन-धान्यादिक परिग्रहका परिमाण करके उससे अधिकमें मन-वचन-कायसे जो निःस्पृहता रखना सो अपरिग्रहव्रत है || ३८२|| नरक-पात, असन्तोष, आरम्भ और सुखका अपहरण करना परिग्रहका फल है, ऐसा जानकरके परिग्रहका निवारण करना चाहिये || ३८३ ॥ परिग्रहके
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