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भावकाचार-संग्रह
सागारे वाऽनगारे वाऽनस्तमितमणुव्रतम् । समस्तव्रतरक्षायं स्वर-व्यञ्जनभाषितम् ॥८९ प्रवृत्तिः शोधिते शुद्धे ताम्बूलजलमोषधे । निवृत्तिः सर्वस्थानेषु फलधान्याशनादिषु ॥९० वाग् वाणी भारती भाषा सरस्वती त्रिघा ततः । आशूच्चारं कृतोच्चारमयोग्यं भवति ध्रुवम् ॥९१ मूत्रोत्सर्गे पुरीषे च स्नाने भोजन मैथुने । वमने देवपूजायां मौनमेतेषु चाचरेत् ॥९२ पञ्चेन्द्रियस्य जीवस्य कर्मास्थिसहितं ध्रुवम् । इतरेषां शरीरं तु चातुर्धातुविर्वाजतम् ॥९३ पलासृकपूयसंश्रावमार्द्रचर्मास्थिदर्शनम् । प्रत्याख्यातं त्यजेत्सर्वं प्राणिहिसावलोकनम् ॥९४ अन्तराया हि पात्यन्ते दर्शनव्रतकारणात् । द्रुतं संसारसौख्यार्थं दर्शनं मोक्षकारणम् ॥९५ मृतके मद्य-मांसेवा स्पर्शने स्नानमाचरेत् । पञ्चेन्द्रियचर्मास्थि स्पृष्ट्वाऽऽचमनं भवेत् ॥९६ चमसंस्थं घृतं तैलं तोयमन्यद् द्रवं तथा । अयोग्यं दर्शनीकस्य भव्यस्य जिनभाषितम् ॥९७ मूलकं नालिकाच पद्मकन्दं च केतकी । रसोणं स्तरणं स्थानं निन्दितं हि जिनागमे ॥९८ कडुम्बो करडश्चैव कालिङ्ग ं च तथा ध्रुवम् । मघुरालम्बबिल्वं च वर्जयन्तु उपासकाः ॥९९
प्रकाश मन्द हो जाता है, उस समय भी भोजन करनेवाला व्यक्ति अपना और अन्य जीवोंका विनाश करता है, तो रात्रिमें भोजन करनेवालेकी तो कथा हो क्या है ? वह तो जीवोंका घात करता ही है ||८|| सागार (श्रावक) हो, अथवा अनगार (साधु), दोनोंको ही समस्त व्रतोंकी रक्षा के लिए अनस्तमित (दिवाभोजन) नामक अणुव्रतका पालन स्वरव्यञ्जनयुक्त शास्त्रोंमें आवश्यक कहा गया है ॥८९॥ | इस दर्शनिक श्रावककी प्रवृत्ति शोधित शुद्ध अन्नमें, शोधित ताम्बूल, औषधि और जलके खान-पानमें होनी चाहिए। तथा सभी स्थान पर अशोधित फलोंके और अन्नादिके खान-पानसे निवृत्ति होनी चाहिए ॥२०॥
जो मनुष्य उतावलेपनसे शीघ्रता-पूर्वक वचनोंका उच्चारण करता है, उसके वाणी, भारती, भाषा, सरस्वती स्वरूप वचन शब्द, अर्थ और उभयन -- इन तीनों ही प्रकारसे अयोग्य होते हैं, यह ध्रुव सत्य है ॥९१॥ मूत्र उत्सर्गके समय, मल-विसर्जनके समय, स्नान, भोजन, मैथुन, वमनके समय तथा देव-पूजा करते समय इन सात कार्योंमें मौन रखना चाहिए ||१२|| पंचेन्द्रिय तिर्यंच और मनुष्य का शरीर निश्चित रूपसे चर्म और हड्डी सहित होता है । अन्य देव और नारकियों का शरीर रक्त आदि चार घातुओंसे रहित होता है ॥९३॥ भोजन करते समय मांस, रक्त, पीबका संश्राव ( बहना), गोला चर्म और हड्डीका दर्शन हो तो भोजनका त्याग करें और प्राणियों की हिंसा होती हुई देखे तो भोजनका परित्याग कर देना चाहिए ||१४|| ऊपर कहे गये और आगे कहे जानेवाले भोजनके अन्तराय सम्यग्दर्शन और व्रतोंके रक्षण, पोषण एवं संवर्धन के कारणसे पालन किये जाते हैं । इनका पालन संसारके सुखके लिए भी आवश्यक हैं और सम्यग्दर्शन तो मोक्षका कारण ही है ॥९५॥
मृतक जीवके, मद्य और मांसके स्पर्श हो जानेपर स्नान करना चाहिए। तथा पंचेन्द्रिय प्राणीके चर्म और हड्डी के स्पर्श होनेपर आचमन करना चाहिए ||१६|| चमड़ेमें रखा हुआ घृत, तेल, जल एवं अन्य द्रव (तरल) अर्क, रस आदि द्रव्य दर्शनिक श्रावकके लिए जिन भगवान्ने अयोग्य कही हैं ||१७|| मूली, कमल-नाल, कमल - कन्द, केतकी, रसालु स्तरण (?) ये सभी जिन आगममें निन्दित कहे गये हैं ||१८|| कडुम्ब ( ) और कलिंग (कलींदा) ) और बिल्वफल इन सबका श्रावकों को त्याग करना चाहिए ।
करण्ड (
तथा मधुर आलम्ब (
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