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श्रीदेवसेनविरचित प्राकृत - भावसंग्रह
जइ वि सुजायं वोयं ववसायपउत्तओ विजइ कसओ । कुच्छियखेत्ते ण फलइ तं वीयं जह तहा दाणं ॥५२ जइ फलइ कह वि दाणं कुच्छियजाईहि कुच्छियसरीरं । कुच्छियभोए बाउं पुणरवि पाडेह संसारे ॥५३
संसारचक्कवाले परिव्भमंतो हु जोणिलक्खाईं। पावइ विवहे दुक्खे विरयंतो विविहकम्माई ॥५४ सम्मादिट्ठीपुष्णं ण होइ संसारकारणं णियमा ।
मोक्खस्स होइ हेउं जइ वि णियाणं ण सो कुणई ॥५५
अकइयणियाणसम्मो पुष्णं काऊण णाणचरणट्ठो । उप्पज्जह दिवलोए सुहपरिणामो सुलेसो वि ॥५६ अंतरमुहुत्तमज्झे देहं चइऊण माणुसं कुणिमं । गिण्हइ उत्तमदेहं सुचरियकम्माणुभावेण ॥५७ धम्मं रुहिरं मंसं मेज्जा अट्ठि च तह वसा सुक्कं । सिभं पित्तं अंतं मुत्तं पुरिसं च रोमाणि ॥५८ णहदंतसिरपहारुलाला सेउयं च णिमिस आलस्सं । णिद्दा तव्हा य जरा अंगे देवाण ण हि अत्थि ॥५९ सुइ अमलो वरवण्णो देहो सुहफासगंधसंपण्णो वालरवितेयसरिसो चारुसरूवो सया तरुणो ॥६० अणिमा महिमा लहिमा पावह पागम्म तह य ईसत्तं । वसियत्त कामरूवं एत्तियहि गुणेहि संजुत्तो ॥ ६१
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देवाण होइ देहो अइउत्तमेण पुग्गलेण संपुण्णो । सहजाहरणणिउत्तो अइरम्मो होइ पुण्णेण ॥६२
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( खोटे) पात्रों को दान देनेसे व्यन्तरादि कुदेवोंमें और कुभोगभूमिके कुमनुष्य और कुतियंचोंमें फलता है ॥ ५१ ॥ जैसे कि उत्तम जातिका बीज भी व्यवसायपूर्वक यदि कोई किसान खोटे खेत में ( ऊसर भूमिमें ) बोता है तो वह बीज फलको नहीं देता है, इसी प्रकार खोटे पात्रमें दिया गया दान भी फलको नहीं देता है ॥ ५२ ॥ यदि किसी प्रकार वह दान फलता भी है तो वह खोटी जाति में उत्पन्न होना, खोटे शरीरको धारण करना और खोटे भोगोंको देना आदि फलको देकर फिर भी संसार में ही गिराता है ।। ५३ ।। कुपात्रोंको दान देनेवाला पुरुष चौरासी लाख योनियोंसे भरे हुए इस संसार चक्रवालमें परिभ्रमण करता हुआ विविध प्रकारके कर्मोंका उपार्जन करता रहता है और उनके फल-स्वरूप दुर्गतियोंके नाना दुःखोंको भोगता रहता है ॥ ५४ ॥
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किन्तु सम्यग्दृष्टि जीवका पुण्य नियमसे संसारका कारण नहीं होता है । और यदि वह निदान नहीं करता है, तो उसका पुण्य मोक्षका कारण होता है ।। ५५ ।। जो सम्यग्दृष्टि पुरुष निदानको नहीं करता है और ज्ञान चारित्रकी आराधनामें स्थित रहता है, वह पुण्य करके देवलोक में शुभपरिणाम और शुभलेश्याका धारक देव होता है ॥ ५६ ॥ सम्यग्दृष्टि जीव अच्छी तरह आचरण किये गये पुण्य कर्मके प्रभावसे मनुष्यके इस घृणित शरीरको छोड़कर मल-मूत्रादिसे रहित उत्तम वैक्रियिकशरीरको ग्रहण करता है ॥ ५७ ॥ उन देवोंके शरीर में चर्म, रुधिर, मांस, मेदा, हड्डी, चर्बी, शुक्र ( वीर्य ), कफ, पित्त, आंतें, मल, मूत्र, रोम, नख, दन्त, शिरा, ( नसें ) नारु, लार, प्रस्वेद, नेत्रोंकी टिमकार, आलस्य, निद्रा, तृषा और बुढ़ापा नहीं होता है ।।५८-५९ ।। पुण्य कर्मके उदयसे देवोंका शरीर पवित्र, निर्मल, और उत्तम वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्शसे सम्पन्न होता है, उदित होते हुए सूर्य के तेजके सदृश तेजस्वी होता है, उनका शरीर अत्यन्त सुन्दर और सदा तरुण अवस्थाको धारण करता है । वे देव अणिमा, महिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्यत्व, ईशत्व और कामरूप इन आठ गुणोंसे संयुक्त होता है ॥। ६०-६१ ।। देवोंका देह पुण्यके उदयसे अति उत्तम पुद्गलोंके द्वारा निर्मित होता है, अतएव अतिरमणीय होता है और सह
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