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श्रीदेवसेनविरचित प्राकृत-भावसंग्रह
इय णाऊण विसेसं पुण्णं आयरइ कारणं तस्स । पावहणं जाम सयलं संजमयं अप्पमत्तं च ॥१३८
भावह अणुन्वयाई पालह सोलं च कुणह उववासं । पव्वे पव्वे णियमं दिज्जह अणवरह दाणाई ॥१३९ अभयपयाणं पढमं विदियं तह होइ सत्थदाणं च ।
तइयं ओसहदाणं आहारदाणं चउत्थं च ॥१४० सन्वेसि जीवाणं अभयं जो देइ मरणभीरूणं । सो णिन्भओ तिलोए उक्किट्टो होइ सन्वेसि ॥१४१
सुयदाणेण य लब्भइ मइसुइणाणं च ओहिमणणाणं । बुद्धितवेण य सहियं पच्छा वरकेवलं जाणं ॥१४२ ओसहदाणेण णरो अतुलियबलपरक्कमो महासत्तो। वाहिविमुक्कसरीरो चिराउसो होइ तेयट्ठो ॥१४३ दाणस्साहार फलं को सक्कइ वणिऊण भुवणयले।
दिणेण जेण भोआ लभंति मणिच्छिया सम्वे ॥ १४४ दायारो वि य पत्तं दाणविसेसो तहा विहाणं च । एए चउअहियारा णायव्वा होंति भग्वेण ॥१४५ दायारो उवसंतो मणवयका संजुओ दच्छो। दाणे कयउच्छाओ पयडियवरछग्गुणो अमयो ॥१४६ भत्ती तुट्ठी य खमा सद्धा सत्तं च लोहपरिचाओ। विण्णाणं तत्काले सत्तगुणा होंति दायारे ॥१४७
को पाकर पीछे तपश्चरण कर, केवलज्ञानको पाकर भव्य जीवोंको धर्मोपदेश देते हुए अन्तमें मोक्ष प्राप्त करता है ।। १३७ ।। यह सब पुण्यकी विशेष महिमा जान कर जब तक सकल संयम और अप्रमत्त गुणस्थान न प्राप्त हो, तब तक पाप-विनाशक और मोक्षके कारणभूत पुण्य विशेषका उपार्जन करते रहना चाहिए॥१३८॥
उस पुण्य विशेषका उपार्जन करनेके लिए अणुव्रतोंको पालन करना चाहिए, शील व्रतोंकी भावना करनी चाहिए, प्रत्येक पर्वके दिन उपवास करना चाहिए और नियमपूर्वक निरन्तर दान देना चाहिए ॥ १३९ ॥ दानके चार भेद हैं। उनमें पहला अभयदान है, दूसरा शास्त्रदान है, तीसरा औषधदान है और चौथा आहारदान है ॥ १४० ॥ जो मरणसे भयभीत समस्त प्राणियोंकों अभयदान देता है, वह पुरुष तीनों लोकोंमें निर्भय रहता है और सर्व मनुष्योंमें उत्कृष्ट होता है ।। १४१ ।। शास्त्रदानसे मनुष्य मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, और मनःपर्ययज्ञानको प्राप्त करता है। तथा बुद्धि और तपश्चरणके साथ पीछे उत्कृष्ट केवलज्ञानको भी पाता है।॥ १४२॥ औषधदानसे मनुष्य अतुल बल-पराक्रमको पाकर महाबलशाली-आधि-व्याधियोंसे रहित नीरोग शरीरी, चिरायुष्क और तेजस्वी पुरुष होता है ।। १४३ ।। इस त्रिभुवनमें आहारदानके फलको वर्णन करनेके लिए कौन समर्थ है ? कोई भी नहीं। क्योंकि आहारदानके देनेसे मनोवांछित सभी अभीष्ट भोग प्राप्त होते हैं ।। १४४ ॥
दानके विषय में भव्य पुरुषको दाता, पात्र, दान और दानकी विधि ये चार अधिकार जानने योग्य हैं ॥ १४५ ॥ जो भव्य जीव शान्त परिणामोंको धारण करता है, शुद्ध मन वचन कायसे मुक्त है, दान देने में कुशल है, दान देनेका उत्साह रखता है, गर्व-रहित है और उत्कृष्ट छह गुण जिसके प्रकट हुए हैं, ऐसा पुरुष दाता कहलाता है ॥ १४६ ॥ दातामें भक्ति, सन्तोष, क्षमा, श्रद्धा, सत्त्व (दान देनेकी शक्ति), लोभ-परित्याग और दानको देनेका विशिष्ट ज्ञान ये सात गुण होना
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