Book Title: Sharavkachar Sangraha Part 3
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 485
________________ श्रावकाचार-संग्रह इय अट्ठभेयअच्चण काऊं पुण जवह मूलविज्जा य । जा जत्थ जहाउत्ता सयं च अट्ठोत्तरं जावा ॥१२९ किच्चा काउस्सग्गं देवं शाएह समवसरणत्थं । लट्ठपाडिहेरं णवकेवललद्धिसंपुण्णं ॥१३० पट्टचउघाइकम्मं केवलणाणेण मुणियतियलोयं । परमेट्टीअरिहंतं परमप्पं परमझाणत्थं ॥१३१ झाणं साऊण पुणो मज्झाणियवंदणत्थ काऊणं । उवसंहरिय विसज्जउ जे पुठवावाहिया देवा ॥१३२ एणविहाणेण फुडं पुज्जा जो कुणइ भत्तिसंजुतो। सो उहइ णियं पावं बंधइ पुणं तिजयखोहं ॥१३३ उववज्जइ दिवलोए भुंजइ भोए मणिच्छिए इटे। बहुकालं चविय पुणो उत्तममणुयत्तणं लहई ॥१३४ होऊण चक्कवट्टी चउदहरमणेहि जवणिहाणेहिं। पालिय छक्खंडधरा भुंजिय भोए णिरुगरिटा ॥१३५ संपत्तबोहिलाहो रज्जं परिहरिय भविय णिग्गंथो । लहिऊण सयलसंजम धरिऊण महत्वया पंच ॥१३६ लहिऊण सुक्कझाणं उप्पाइय केवलं वरं गाणं । सिझेइ गट्टकम्मो अहिसेयं लहिय मेरुम्मि ।।१३७ वांछित फलको प्राप्त करता है ॥ १२८ ।। इस प्रकार अष्टभेदरूप द्रव्योंसे जिनदेवका पूजन करके अनादि मूल मंत्रका जाप करना चाहिए। अथवा जिस पूजनमें जो मूल मंत्र बताया गया है, उसी को एक सौ आठ वार जपना चाहिए ।। १२९ ।। ___ अब किस प्रकारसे भगवान्का ध्यान करना चाहिए, यह बतलाते हैं-जिन-पूजन करके और कायोत्सर्ग करके जिनेन्द्र देवका इस प्रकार ध्यान करें-अरहन्त देव समशरणमें विराजमान हैं, आठों प्रातिहार्योंसे सुशोभित हैं और नौ केवललब्धियोंसे परिपूर्ण हैं ॥ १३० ।। उनके चारों घातिया कर्म नष्ट हो गये हैं; वे केवलज्ञानके द्वारा तीनों लोकोंको साक्षात् जानते हैं, वे ही परमेष्ठी हैं, परमात्मा हैं और परम ध्यानमें लीन हैं। इस प्रकार अरहन्त देवका ध्यान करना चाहिए ॥ १३१ ।। इस प्रकार अरहन्त भगवान्का ध्यान कर माध्याह्निक वन्दना करे । पुनः उपसंहार करके पहले आवाहन किये देवोंका विसर्जन करे ॥ १३२ ॥ इस प्रकार जो भव्यपुरुष भक्तिके साथ उपर्युक्त विधिके अनुसार जिनेन्द्र देवका पूजन करता है वह अपने समस्त पापोंको जला देता है और तीनों लोकोंको चमत्कृत करनेवाले पुण्यको बांधता है ।। १३३ ॥ तदनन्तर आयुके पूर्ण होने पर वह देवलोकमें उत्पन्न होता है और वहाँ पर वह मनोवांछित भोगोंको चिरकाल तक भोगता है। पश्चात् आयुके पूर्ण होने पर वहाँसे चल कर उत्तम मनुष्य भवको प्राप्त करता है ॥ १३४ ।। मनुष्य भवमें वह चक्रवर्ती होकर चौदह रत्नों और नौ निधियोंको पाकर सर्वश्रेष्ठ भोगोंको भोगता है और षट्खण्ड पृथ्वोका पालन करता है ।। १३५ ।। तत्पश्चात् वह बोघि लाभको प्राप्त होकर संसार-शरीर और भोगोंसे विरक्त हो राज्यका परित्याग कर दीक्षा लेकर निर्ग्रन्थ वेषको लेकर सकल संयम रूप पंच महाव्रतको धारण करता है ।। १३६ ।। पुनः शुक्ल ध्यानको पाकर केवलज्ञानको उत्पन्न कर और शेष कर्मोंको भी क्षयकर सिद्ध पदको प्राप्त करता है। यदि वह निर्ग्रन्थ उस भवमें केवलज्ञानको नहीं प्राप्त कर पाता है तो मरण कर स्वर्ग में उत्पन्न होता है और वहाँसे आकर और तीर्थंकर होकर सुमेरु पर्वत पर जन्माभिषेककी महिमा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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