________________
४५.
श्रावकाचार-संग्रह इह लोए पुण मंता सव्वे सिझंति पढियमित्तण ।
विज्जाओ सव्वाओ हवंति फुडु साणुकूलाओ ॥१०८ गहभूयडायणीओ सम्वे णासंति तस्स णामेण । णिग्विसियरणं पयडइ सुसिद्धचक्कप्पहावेण ॥१०९ वसियरणं आइट्टी थंभं गेहं च संतिकम्माणि । णाणाजराण हरणं कुणेइ तं झाणजोएण ॥११०
पहरंति ण तस्स रिउणा सत्तू मित्तत्तणं च उवयादि ।
पुज्जा हवेइ लोए सुवल्लहो णरवरिंदाणं ॥१११ ।। कि बहुणा उत्तेण य मोक्खं सोक्खं च लब्भई जेण । केत्तियमेत्तं एवं सुसाहियं सिद्धचक्केण ॥११२ अहवा जइ असमत्यो पुज्जइ परमेट्रिपंचकं चक्कं । तं पायडं खु लोए इच्छियफलदायगं परमं ॥११३ सिररेहभिण्णसुण्णं चंदकलाबिंदुएण संजुतं । मत्ताहिवउवरगयं सुवेढियं कामबीएण ॥११४ वामदिसाइं गयारं मयारसविसग्गदाहिणे भाए । बहिअट्ठपत्तकमलं तिउणं वेढह मायाए ।।११५ पणमंति मुत्तिमेगे अरहंतपयं दलेसु सेसेसु । धरणोमंडलमज्झे झाएह सुरच्चियं चक्कं ॥११६ । अह एउणवण्णासे कोटे काऊण विउलरेहाहि । अयरोइअक्खराइं कमेण विग्णिसहं सव्वाइं ॥११७ ता णिसहं जहयारं मज्झिमठाणेसु ठाइ जुत्तीए । वेढह बोएण पुणो इलमंडलउयरमज्झत्थं ॥११८ एए जंतुद्धारे पुज्जह परमेट्टिपंचअहिहाणे । इच्छइ फलदायारो पावघणपडलहंतारो॥११९ पापोंका भी विनाश कर देता है। इसके साथ ही प्रचुर मात्रामें नवीन पुण्य कर्मको बाँधता है ॥ १०७ ।। इन यन्त्रोंके पठन करने मात्रसे इस लोकमें सभी मंत्र सिद्ध हो जाते हैं, तथा जितनी विद्यायें हैं वे सब अच्छी तरहसे अपने अनुकूल हो जाती हैं। १०८ ॥ गुह, भूत, डाकिनी, पिशाच आदि सभी सिद्धचक्रका नाम लेनेसे ही भाग जाते हैं और इसके प्रभावसे विष भी निविषपनेको प्राप्त हो जाता है, अर्थात् दूर हो जाता है ।। १०९ ॥ इन यन्त्र-मंत्रोंका ध्यान करनेसे वशीकरण, आकर्षण, स्तम्भन, शान्ति कर्म और स्नेह आदिकी सिद्धि होती है, तथा नाना प्रकारके रोग और ज्वर दूर हो जाते हैं ।। ११० ॥ शत्रु जन उसके ऊपर किसी भी प्रकारका प्रहार नहीं कर सकते, प्रत्युत उसके मित्र बन जाते हैं। लोकमें उसकी पूजा होती है और वह राजा-महाराजाओंका वल्लभ ( प्रिय) हो जाता है ॥ १११ ॥ अथवा बहुत कहनेसे क्या? जिस सिद्ध चक्रके प्रतापसे इस मनुष्यको मोक्षका अनन्त सुख प्राप्त होता है, फिर ये सांसारिक लाभ उसके सामने क्या वस्तु हैं, अर्थात् कुछ भी महत्त्व नहीं रखते हैं ।। ११२ ॥
अथवा जो कोई पुरुष इन यन्त्रोंके बनाने में और अर्चन-पूजन करने में असमर्थ हो तो उसे पंचपरमेष्ठीके चक्ररूप यंत्रकी पूजा करनी चाहिए। पंचपरमेष्ठी चक्र यंत्र भी इस लोकमें प्रकटरूपसे परम अभीष्ट फलका दायक है॥ ११३ ।।।
अब आगे पंचपरमेष्ठी चक्र-यंत्र की उद्धार विधि बतलाते हैं-( यद्यपि इन गाथाओंका भाव बराबर समझमें नहीं आया है, तथापि जो शब्दार्थ ध्यानमें आया है, वह लिखा जाता है) कर्णिका युक्त आठ पत्रवाला एक कमल बनावे, कर्णिकाके बीचमें। __अथवा अनेक रेखाओं द्वारा उनचास कोणवाला एक यन्त्र बनावे । उसके मध्य कर्णिका पर पंच परमेष्ठीका नाम लिख करके क्रमसे एक एक कोठेमें अकारसे लेकर हकार तकके अक्षर लिखना चाहिए । पुनः माया बीजसे वेष्टित करके तीन रेखाओंसे धारा मंडलको लिखे ॥ ११७११८ ।। यह यंत्रोद्धार पंच परमेष्ठीका वाचक है। इसकी पूजा करनेसे इच्छानुसार फलकी प्राप्ति
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org