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श्रावकाचार-संग्रह
सर्वेषामभयं प्रवृद्धकरणबद्दीयते प्राणिनां दानं स्यादभयादि तेन रहितं दानत्रयं निष्फलम् । आहारौषधशास्त्रदानविधिभिः क्षुद्रोगजाड्याभयं यत्तत्पात्रजने विनश्यति ततो दानं तदेकं परम् ॥११ आहारात्सुखितौषधादतितरां नीरोगता जायते शास्त्रात्पात्रनिवेदितात्परभवे पाण्डित्यमत्यद्भतम् । एतत्सर्वगुणप्रभापरिकरः पुंसोऽभयाद्दानतः पर्यन्ते पुनरन्नतोन्नतपदप्राप्तिविमुक्तिस्ततः ॥१२२
कृत्वा कार्यशतानि पापबहुलान्याश्रित्य खेदं परं
भ्रान्त्वा वारिधिमेखलां वसुमती दुःखेन यच्चाजितम्। तत्पुत्रादपि जीवितादपि धनं प्रेयोऽस्य पन्था शुभो ।
दानं तेन च दीयतामिदमहो नान्येन तत्सद्गतिः ॥१३ दानेनैव गृहस्थता गुणवती लोकद्वयोद्योतिका नैव स्यान्ननु तद्विना धनवतो लोकद्वयध्वंसकृत् । दुव्यापारशतेषु सत्सु गृहिणः पापं यदुत्पद्यते तन्नाशाय शशाङ्कशुभ्रयशसे दानं न चान्यत्परम् ॥१४
ज्ञान दानके देनेपर भव्यजन कुछ ही भवोंमें त्रैलोक्यमें उत्सव करनेवाली समवसरण-लक्ष्मीको प्राप्तिके साथ समस्त जगत्को हस्त-रेखाके समान प्रत्यक्ष देखनेवाले केवलज्ञानके धारक होते हैं ॥१०॥
निरन्तर वर्धमान करुणा ( दया ) के धारक श्रावकोंके द्वारा सभी प्राणियोंके भयको दूर कर और उन्हें निर्भय बनाकर जो उनको रक्षा की जाती है, उसे अभयदान कहते हैं। इस अभयदानके बिना शेष तीनों दानोंका देना निष्फल है। वस्तुतः पात्र जनोंको आहार देनेसे उनका क्षुधाजनित भय दूर होता है, औषधि देनेसे रोगका भय दूर होता है और शास्त्र दान करनेसे जड़तासे उत्पन्न होनेवाला अज्ञानका भय विनष्ट होता है, इसलिए एक अभयदान ही सब दानोंमें श्रेष्ठ हैं, क्योंकि उसके भीतर तीनों दानोंका समावेश हो जाता है ।। ११ ॥
पात्रोंको दिये गये आहारदानसे परभवमें देव, इन्द्र, चक्रवर्ती आदिके सुखोंकी प्राप्ति होती है, औषधिदानसे अत्यन्त नीरोग और रूपवान् शरीर प्राप्त होता है, शास्त्र दानसे अति चमत्कारी पाण्डित्य प्राप्त होता है। किन्तु केवल एक अभयदानसे उक्त सर्व गुणोंका परिकर ( समुदाय ) मनुष्यको प्राप्त होता है और उत्तरोत्तर उन्नत पदोंकी प्राप्ति होते हुए अन्तमें मुक्ति भी प्राप्त होती है ॥ १२ ॥
मनुष्य बहुत पापवाले सैकड़ों कार्योंको करके, अत्यन्त खेदको प्राप्त होकर और समुद्रपर्यन्त सारी पृथ्वीपर परिभ्रमण करके अति दुःखसे जिस धनका उपार्जन करता है, वह उसे अपने पुत्रसे और जीवनसे भी प्यारा होता है। उस धनके सदुपयोगका यदि कोई शुभ मार्ग है, तो सुपात्रोंको दान देना ही है। दानके सिवाय धनका और कोई सदुपयोग या सद्-गति नहीं है, इसलिए सुपात्रोंको सदा ही दान देना चाहिए ।। १३ ।।
दानसे ही गृहस्थपना सार्थक होता है और दानसे हो दोनों लोकोंमें प्रकाश करनेवाली गुणवत्ता प्राप्त होती है। किन्तु दानके बिना धनी पुरुषकी गृहस्थता दोनों लोकोंका विनाश करनेवाली होती है। गृहस्थोंके सैकड़ों खोटे व्यापारोंके होते रहने पर जो पाप उत्पन्न होता है, उसके नाश करनेके लिए, तथा चन्द्रमाके समान उज्ज्वल यश पाने के लिए दान ही सर्वश्रेष्ठ है, इससे उत्तम अन्य कोई वस्तु नहीं है । अतएव गृहस्थको चाहिए कि वह पात्रोंको दान देकर अपने गृहस्थपनेको सफल करें ॥ १४ ॥
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