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श्रीवकाचार-संग्रह
मानकूटं तुलाकूटं वर्जयेत् कपटं तथा । चौर्यसम्बन्धतः सर्व वजितं च जिनागमे ॥ १३७ रावणो ह्यतिविख्यातः कीचकोऽपि नरेश्वरः । परस्त्रीणाञ्च लोभेन मृत्वा प्राप्तावधोगतिम् ॥१३८ अभिलाषेण पापं तु सङ्गतिस्तस्य का कथा । वारयेदभिलाषं च वारयेच्च परस्त्रियः ॥१३९ पर-नार्यभिलाषेण पापं तु लभते ध्रुवम् । अलब्धा तु परा नारी लब्धं दुःखं च कामजम् ॥१४० मृत्युर्लज्जा भयं तीव्रं परनारीपरस्तथा । नारी पुरुषसंसक्ताऽभया रत्नादिका कथा ॥ १४१ व्यसनस्य फलं यश्च नित्यं पश्यति पश्यति । मोहान्धा न विरज्यन्ति मोहः संसारदुःखदः ॥ १४२ कोषमानग्रहग्रस्तो मायालोभविडम्बितः । स्वहितं न हि जानाति जिनदेवेन भाषितम् ॥१४३ इति भव्यमार्गोपदेशोपासकाध्ययने भट्टारक श्री जिनचन्द्रनामाङ्किते जिनदेवविरचिते धर्मशास्त्रे व्यसनपरित्यागः प्रथमः परिच्छेदः ॥ १ ॥
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( तोलने में छल करना) तथा भाव आदि बताने में छल करना आदि चोरोंसे सम्बन्धित जितने भी काम हैं, वे सब जिनागममें वर्जित हैं, ऐसा जान करके मनुष्यको कभी चोरी नहीं करनी चाहिए ॥१३७॥
सातवां व्यसन परदारागमन है । रावण जगत् में अतिविख्यात महापुरुष था, कीचक भी प्रसिद्ध राजा था । परन्तु ये परस्त्रीकी अभिलाषासे मरकर दुर्गतिको प्राप्त हुए || १३८ || जब परस्त्रीकी अभिलाषा से ही पाप होता है, तब उसकी संगतिकी क्या कथा कही जाये ? इसलिए परस्त्रीको अभिलाषा छोड़े और परस्त्री गमनको भी छोड़े ॥ १३९ || पर नारीकी अभिलाषासे नियमतः पापका उपार्जन होता है । और अभिलाषा करनेपर भी जब पर-नारी प्राप्त नहीं होती है तब तो काम-जनित महान् दुःख होता है || १४० || पर नारीके सेवन में निरत पुरुषका मरण देखा जाता है, लोक- लज्जित होना पड़ता है, और सदा ही मारे जानेका तीव्र भय बना रहता है । इसी प्रकार जो स्त्री पर-पुरुषमें आसक्त होती है और पर-पुरुषको सेवन करती है, वह अभया रानी रत्ना आदिके समान महा दुःखोंको पाती है, उनकी कथा शास्त्रोंमें प्रसिद्ध है ॥ १४१ ॥
इस प्रकारसे जो मनुष्य व्यसनोंके खोटे फलको नित्य देखता है, वह आत्म-कल्याणको देखता है । किन्तु जो मोहसे अन्धे हैं और व्यसनोंसे विरक्त नहीं होते हैं, वे इस लोक और परलोकमें दुःख पाते हैं । मोह ही संसारके दुःखोंको देनेवाला है || १४२ ।। जो मनुष्य क्रोध और मानरूपी ग्रहोंसे ग्रसित है और माया तथा लोभसे विडम्बित है, वह आत्महितको नहीं जानता है, ऐसा जिनेन्द्रदेवने अथवा ग्रन्थकार जिनदेवने कहा है ॥ १४३ ॥
इस प्रकार भट्टारक श्री जिनचन्द्रके नामसे अंकित, और जिनदेवसे विरचित इस भव्य मार्गोपदेशोपासकाध्ययन नामक धर्मशास्त्रमें व्यसनपरित्याग नामक प्रथम परिच्छेद समाप्त हुआ ।
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