________________
तत्त्वार्थसूत्र गत-उपासकाध्ययन हिसान्तस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेम्यो विरतिव॑तम् ॥१॥ देशसर्वतोऽणुमहती ॥२॥ तत्स्थैर्यार्थ भावनाः पञ्च पञ्च ॥३॥ वाङ्मनोगुप्तीर्यादाननिक्षेपणसमित्यालोकितपानभोजनानि पञ्च ॥४॥ क्रोधलोभभीरुत्वहास्यप्रत्याख्यानान्यनुविचिभाषणं च पञ्च ॥५॥ शन्यागारविमोचितावासपरोपपरोधाकरणभक्ष्यशुद्धिसधर्माविसंवादाः पञ्च ॥६॥ स्त्रीरागकथाश्रवणतन्मनोहराङ्गवीक्षणपूर्वरतानुस्मरणवृष्टेष्टरस स्व स्वशरीरसंस्कारत्यागाः पञ्च ॥७॥ मनोज्ञामनोजेन्द्रियविषयरागद्वेषवर्जनानि पञ्च ॥८॥
हिंसादिष्विहामुत्रापायावद्यदर्शनम् ॥९॥ दुःखमेव वा ॥१०॥ मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्य
हिंसा, असत्य, चोरी, कुशील और परिग्रह इन पापोंसे विरक्त होना व्रत है ।।१।। उक्त पापोंके एक देशसे विरक्त होना अणुव्रत है और सर्वरूपसे विरक्त होना महावत है ।।२॥ इन व्रतोंकी स्थिरताके लिए पांच-पांच भावनाएं होती हैं ॥३॥ वचनगुप्ति, मनोगुप्ति, ईर्यासमिति, आदान निक्षेपण समिति और आलोकितपानभोजन ये अहिंसावतकी पाँच भावनाएं हैं ॥४॥ क्रोधत्याग, लोभत्याग, भयत्याग, हास्यत्याग और अनुवीचिभाषण (विचारपूर्वक बोलना) ये सत्यव्रतको पांच भावनाएँ हैं ॥५॥ शून्यागार-पर्वतकी गुफा, वृक्षकी खोह और सूने मकान आदिमें निवास करना, परके द्वारा छोड़े गये मकान आदिमें रहना, दूसरेको उसमें आनेसे नहीं रोकना, भिक्षाकी शुद्धि रखना और साधर्मियोंके साथ 'यह मेरा, यह तेरा', ऐसा कह करके विसंवाद नहीं करना ये पांच अचौर्यव्रतकी भावनाएं हैं ॥६॥ स्त्रीराग कथाश्रवणत्याग, उनके मनोहर अंगोंके देखनेका त्याग, पूर्वमें भोगे गये विषयोंके स्मरणका त्याग, गरिष्ठ रसवाले भोजनका त्याग और अपने शरीरके संस्कारका त्याग ये पांच ब्रह्मचर्यव्रतकी भावनाएं हैं ॥७॥ पांचों इन्द्रियोंके इष्ट विषयोंमें रागका और अनिष्ट विषयोंमें द्वेषका त्याग करना, अपरिग्रहवतकी पांच भावनाएं हैं ॥८॥
हिंसादिक पापोंके विषयमें ऐसा विचार करना चाहिए कि ये पांचों पाप इस लोक और परलोकमें अपाय और अवद्यके करनेवाले हैं ॥९॥
विशेषार्थ--अभ्युदय और निःश्रेयसके साधनोंके नाशक अनर्थोंको अपाय कहते हैं। इस लोकभय, परलोकभय आदि सात प्रकारके भयोंको भी अपाय कहते हैं । लोक-निन्द्य कार्यको अवद्य कहते हैं । अतः हिंसादि पापोंके विषयमें ऐसा विचार करना चाहिए कि हिंसा करनेवाला नित्य उद्विग्न रहता है, उसके अनेक वैरी सदा बने रहते हैं, वह इसी लोकमें वध-बन्धनादिके दुःखोंको पाता है और मरकर दुर्गतिमें जाता है एवं लोकमें निन्दनीय भी होता है। अतः हिंसासे विरक्त होना ही श्रेयस्कर है । असत्यभाषीका कोई विश्वास नहीं करता, उसे यहींपर राजदण्ड भोगना पड़ता है और परभवमें भी दुगंतिमें दुःख सहने पड़ते हैं और निन्दाका पात्र होता है। अतः असत्य नहीं बोलने में ही मेरा भला है। चोर का सब तिरस्कार करते हैं। उसे यहींपर मार-पीट, बधबन्धनादि नाना प्रकारके दुःख भोगने पड़ते है, लोकमें निन्दा होती है और परभवमें खोटी योनियोंमें जाना पड़ता है । अतः चोरीसे विरक्त होना ही भला है । कुशीलसेवी मदोन्मत्त हाथीके समान
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org