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हरिवंशपुराणगत श्रावकाचार
दिग्विरत्यभिचारोऽधस्तिर्यगध्वंव्यतिक्रमाः । लोभात्स्मृत्यन्तराधानं क्षेत्रवृद्धिश्च पञ्चधा ॥६३ प्रेष्यप्रयोगानयन पुद्गलक्षेपलक्षणाः । शब्दरूपानुपातौ द्वौ सद्देशविरतिव्रते ॥ ६४ पञ्च कन्दर्पकौत्कुच्य मौखर्याणि तृतीयके । असमीक्ष्याधिकरणोपभोगादिनिरर्थने ॥६५ योनिः प्रणिधानानि त्रीण्यनादरता च ते । पञ्च स्मृत्यनुपस्थानं स्युः सामायिकगोचराः ॥ ६६ अनवेक्ष्य मलोत्सर्गादानसंस्तरसंक्रमाः । स्युः प्रोषधोपवासस्य ते नैकाग्र्यमनादरः ॥ ६७ सचित्ताहारसम्बन्धसन्मिश्राभिषवास्तु ते । उपभोगपरीभोगे दुष्पक्वाहार एव च ॥ ६८
अतिचार हैं । रुपया चाँदी आदिको हिरण्य तथा सोना व सोनेके आभूषण आदिको सुवर्ण कहते हैं । रहने के मकानको वास्तु और गेहूँ चना आदिके उत्पत्ति-स्थानोंको क्षेत्र कहते हैं । गाय भैंस आदिको धन तथा गेहूँ चना आदि अनाजको धान्य कहते हैं । दासी दास शब्दका अर्थ स्पष्ट है | बर्तन तथा वस्त्रको कुप्य कहते हैं । इनके प्रमाणका उल्लंघन करना सो हिरण्यसुवर्णातिक्रम आदि अतिचार होते हैं ।। ६२ ॥
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अव्यतिक्रम, तिर्यग्व्यतिक्रम, ऊर्ध्वव्यतिक्रम, स्मृत्यन्तराधान और क्षेत्रवृद्धि ये पाँच दिग्व्रत के अतिचार हैं। लोभके वशीभूत होकर नीचेकी सीमाका उल्लंघन करना अधोव्यतिक्रम है । समान धरातलकी सीमाका उल्लंघन करना तिर्यग्व्यतिक्रम है । ऊपरकी सीमाका उल्लंघन करना ऊर्ध्वव्यतिक्रम है । की हुई सीमाको भूलकर अन्य सीमाका स्मरण रखना स्मृत्यन्तराधान है । तथा मर्यादित क्षेत्रकी सीमा बढ़ा लेना क्षेत्रवृद्धि है || ६३ || प्रेष्य प्रयोग, आनयन, पुद्गल क्षेप, शब्दानुपात और रूपानुपात ये पाँच देश व्रतके अतिचार हैं । मर्यादाके बाहर सेवकको भेजना प्रेष्यप्रयोग है। मर्यादासे बाहर किसी वस्तुको बुलाना आनयन है । मर्यादाके बाहर कंकड़-पत्थर आदिका फेंकना पुद्गलक्षेप है, मर्यादाके बाहर अपना शब्द भेजना शब्दानुपात है । और मर्यादा के बाहर काम करनेवाले लोगोंको अपना रूप दिखाकर सचेत करना रूपानुपात है ॥ ६४ ॥ कन्दर्प, कौत्कुच्य मौर्य, असमीक्ष्याधिकरण और उपभोगपरिभोगानर्थक्य ये पाँच अनर्थदण्ड व्रतके अतिचार हैं । रागकी उत्कटतासे हास्यमिश्रित भण्डवचन बोलना कन्दर्प है | शरीरसे कुचेष्टा करना कौत्कुच्य है । आवश्यकता से अधिक बोलना मौखर्य है । प्रयोजनका विचार न रख आवश्यकतासे अधिक किसी कार्य में प्रवृत्ति करना - कराना असमीक्ष्याधिकरण है और उपभोग - परिभोगकी वस्तुओंका निरर्थक संग्रह करना उपभोगपरिभोगानर्थक्य है ॥ ६५ ॥
मनोयोग दुष्प्रणिधान, वचनयोग दुष्प्रणिधान, काययोगदुष्प्रणिधान, अनादर और स्मृत्य - नुपस्थान ये पाँच सामायिक शिक्षाव्रतके अतिचार हैं । मनको अन्यथा चलायमान करना मनोयोगदुष्प्रणिधान है । वचनकी अन्यथा प्रवृत्ति करना, पाठका अशुद्ध उच्चारण करना वचनयोग दुष्प्रणिधान है । कायको चलायमान करना काययोग दुष्प्रणिधान है । सामायिक के प्रति आदर वा उत्साह नहीं होना बेगार समझकर करना अनादर है । और चित्तकी एकाग्रता न होनेसे सामायिककी विधि या पाठका भूल जाना अथवा कार्यान्तर में उलझकर सामायिकके समयका स्मरण नहीं रखना स्मृत्यनुपस्थान है ।। ६६ || बिना देखी हुई जमीनमें मलोत्सर्ग करना, बिना देखे किसी वस्तुको उठाना, बिना देखी हुई भूमि में बिस्तर आदि बिछाना, चित्तकी एकाग्रता नहीं रखना और व्रत के प्रति आदर नहीं रखना ये पाँच प्रोषधोपवास व्रतके अतिचार हैं । सचित्ताहार, सचित्त संबन्धाहार, सचित्तमन्मिश्राहार, अभिषवाहार और दुष्पक्वाहार ये पाँच उपभोग परिभोग परिमाण व्रतके अतिचार हैं || ६७ || हरी वनस्पति आदिका आहार करना सचित्ताहार है । सचित्तसे सम्बन्ध
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