Book Title: Sharavkachar Sangraha Part 3
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 463
________________ श्रावकाचार-संग्रह विनयश्च यथायोग्यं कर्तव्यः परमेष्ठिषु । दृष्टिबोधचरित्रेषु तद्वत्सु समयाश्रितैः ॥२९ वर्शनशानचारित्रतपःप्रभृति सिद्धयति । विनयेनेति तं तेन मोक्षद्वारं प्रचक्षते ॥३० सत्पात्रेषु यथाशक्ति दानं देयं गृहस्थितैः । दानहीना भवेत्तेषां निष्फलैव गृहस्थता ॥३१ दानं ये न प्रयच्छन्ति निग्रन्थेषु चतुर्विधम् । पाशा एव गृहास्तेषां बन्धनायव निर्मिताः ॥३२ अभयाहारभैषज्यशास्त्रदाने हि यत्कृते । ऋषीणां जायते सौख्यं गृही श्लाघ्यः कथं न सः ॥३३ समर्थोऽपि न यो दद्याद्यतीनां दानमादरात् । छिनत्ति स स्वयं मूढः परत्र सुखमात्मनः ॥३४ दृषन्नावा समो ज्ञेयो दानहीनो गृहाश्रमः । तदारुढो भवाम्भोषो मज्जत्येव न संशयः ॥३५ स्वमतस्थेषु वात्सल्यं स्वशक्त्या ये न कुर्वते । बहुपापावृतात्मानस्ते धर्मस्य पराङ्मुखाः ॥३६ येषां जिनोपदेशेन कारुण्यामृतपूरिते । चित्ते जीवदया नास्ति तेषां धर्मः कुतो भवेत् ॥३७ मूलं धर्मतरोराद्या व्रतानां धाम सम्पदाम् । गुणानां निधिरित्यङ्गिदया कार्या विवेकिभिः ॥३८ सर्वे जीवदयाऽऽधारा गुणास्तिष्ठन्ति मानुषे । सूत्राधाराः प्रसूनानां हाराणां च सरा इव ॥३९ यतीनां श्रावकाणां च व्रतानि सकलान्यपि । एकाऽहिंसाप्रसिद्धयर्थ कथितानि जिनेश्वरैः ॥४० जैन-शासनका आश्रय लेने वाले मनुष्योंको पंचपरमेष्ठीमें, सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रमें और उनके धारण करनेवालोंमें यथायोग्य विनय अवश्य ही करनी चाहिए। क्योंकि विनयसे ही सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप आदिक सिद्ध होते हैं, इसलिए ज्ञानियोंने उस विनयको मोक्षद्वार कहा है ।। ९-३०॥ गृहस्थोंको सत्पात्रोंमें यथाशक्ति दान देना चाहिए, क्योंकि दानहीन गृहस्थोंकी गृहस्थता निष्फल ही रहती है । जो गृहस्थ निर्ग्रन्थ साधुओंको आहारादि चार प्रकारका दान नहीं देते हैं, उनके घर उनके बन्धनके लिए देवने जाल-पाशके रूपमें ही निर्माण किये हैं, ऐसा मैं (ग्रन्थकार ) मानता हूँ॥ ३-३२॥ जिस गृहस्थके द्वारा अभयदान, आहारदान, औषधिदान और शास्त्रदानके किये जाने पर ऋषि जनोंको सुख प्राप्त होता है, भला फिर वह दाता गृहस्थ प्रशंसाके योग्य कैसे नहीं है ? अर्थात् दान देनेवाले गृहस्थकी सारा संसार प्रशंसा करता है। सामर्थ्यवान् हो करके भी जो गृहस्थ साधुओंको आदरसे दान नहीं देता है, वह मूढ़ परभवमें अपने सुखका स्वयं ही विनाश करता है। दानहीन गृहस्थाश्रम पाषाणकी नावके समान है । उस पाषाणकी नाव पर बैठा हुआ गृहस्थ नियमसे संसाररूपी समुद्र में डूबता ही है ।। ३३-३५ ।। जो श्रावक अपने साधर्मी जनों पर अपनी शक्तिके अनुसार वात्सल्य नहीं करते हैं, वे धर्मसे पराङ्मुख हैं और उनको आत्मा प्रबल पापोंसे आवृत है, ऐसा समझना चाहिए ।। ३६ ।। जिन भगवान्के उपदेश द्वारा करुणारूप अमृतसे पूरित होने पर भी जिन जीवोंके चित्तमें जीवोंके प्रति दवा भाव नहीं है, उन मनुष्योंके हृदयम धर्म कैसे ठहर सकता है ? यह दया भाव धर्मरूप वृक्षका मूल है, इसका सर्व व्रतोंमें प्रथम स्थान है, यह सम्पदाओंका धाम है और गुणोंका निधान है। अताव विवेकी जनोंको जीवोंके प्रति दया अवश्य करनी चाहिए ॥ ३७-३८ ॥ मनुष्य में सभी सद्गुण एक जीव-दयाके आधार पर ही रहते हैं। जैसे कि मालाके फूल अथवा हारोंक मणि सूत्र ( धागा) के आधार पर रहते हैं। मुनियों और धावकोंक समस्त व्रत एक अहिंसाकी परम सिद्धिके लिए ही जिनेश्वरोंने कहे हैं। इसलिए सर्व प्राणियों पर दया ही करना चाहिए ।। ३९-४० ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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