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श्रावकाचार-संग्रह जीवपोतो भवाम्भोधौ मिथ्यात्वादिकरन्ध्रवान् । आस्रवति विनासाथ कर्माम्भः प्रचुरं भ्रमात् ॥५१ कर्मास्त्रवनिरोधोऽत्र संवरो भ्रमति ध्रवम । साक्षादेतदनुष्ठानं मनोवाक्कायसंवृतिः॥५२ निर्जरा शातनं प्रोक्ता पूर्वोपाजितकर्मणाम् । तपोभिर्बहुभिः सा स्याद्वैराग्याश्रितचेष्टितैः ॥५३ लोकः सर्वोऽपि सर्वत्र सापाय स्थितिरध्रुवः । दुःखकारीति कर्तव्या मोक्ष एव मतिः सताम् ॥५४ रत्नत्रयपरिप्राप्रिोधिः सातीव दुर्लभा । लब्धा कथं कथञ्चिच्चेत्कार्यो यत्नो महानिह ॥५५ निजधर्मोऽयमत्यन्तं दुर्लभो भविनां मतः । तथा ग्राह्यो यथा साक्षादामोक्षं सह गच्छति ॥५६ दुःखग्राहगणाकोणे संसारक्षारसागरे । धर्मपोतं परं प्राहुस्तारणार्थं मनीषिणः ॥५७ अनुप्रेक्षा इमाः सद्भिः सर्वदा हृदये धृताः । कुर्वते तत्परं पुण्यं हेतुर्यत्स्वर्ग-मोक्षयोः ॥५८ आद्योत्तमक्षमा यत्र यो धर्मो दशभेदभाक । श्रावकैरपि सेव्योऽसौ यशाशक्ति यथागमम् ॥५९ इतना अशुचि ( अपवित्र ) है कि उसके सम्पर्कसे अन्य पवित्र पदार्थोंमें भी अपवित्रता आ जाती है॥ ५० ॥
७. आस्रवभावना-इस संसार रूप समुद्र में यह जीवरूप जहाज मिथ्यात्व, अविरति आदि छिद्रोंसे युक्त होकर अपने ही भ्रमसे अपने ही विनाशके लिए अपने भीतर प्रचुर कर्मरूप जलका आस्रव करता है ॥ ५१ ।।
८. संवरभावना-अपने भीतर कर्मोंक आगमनका निरोध करना ही निश्चयस संवर है । इस संवरका साक्षात् अनुष्ठान मन, वचन और काय इन तीन योगोंके संवरण (निरोध ) करने पर ही होता है ।। ५२ ।।
९. निर्जराभावना-पूर्व में उपार्जन किये गये कर्मोके झड़ानेको निर्जरा कहते हैं। यह निर्जरा वैराग्य-युक्त चेष्टाओं ( क्रियाओं) के साथ अनशन आदि नाना प्रकारके तपोंके द्वारा होती है ।। ५३ ।।
१०. लोकभावना-यह सम्पूर्ण लोक सर्वत्र ही विनाशीक और अनित्य है, तथा नानाप्रकारके दुःखोंका करनेवाला है, ऐसा विचार करके सज्जनोंको अपनी बुद्धि मोक्षमें ही लगानी चाहिए ॥ ५४ ॥
११. बोधिदुर्लभभावना-सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्रस्वरूप रत्नत्रयकी परिप्राप्तिको बोधि कहते हैं, उसकी प्राप्यि अतीव दुर्लभ हैं। यदि यह बोधि किसी प्रकारसे प्राप्त हो जाय, तो उसकी रक्षाके लिए ज्ञानियोंको महान् यत्न करना चाहिए ॥ ५५ ॥
१२. धर्मभावना -संसारमें जीवोंको ज्ञानानन्द स्वरूप आत्मधर्मका पाना अत्यन्त दुर्लभ माना गया है। इसलिए उसे इस प्रकारसे ग्रहण करना चाहिए कि वह साक्षात् मोक्षकी प्राप्ति होने तक साथ ही चला जाय । नाना प्रकारके दुःखरूपी मगर-मच्छोंके समुदायसे भरे हुए इस संसाररूपी क्षार मागग्में पार उतारनेके लिए मनीषी जन धर्मरूप जहाजको ही परमश्रेष्ट कहते
जो सज्जन पुरुष इन बारह भावनाओंको सदा ही अपने हृदय में धारण करते है, वे उस परम पुण्यका संचय करते हैं, जो कि स्वर्ग और मोक्षका कारण है। इमलिए अभ्युदय और नि:श्रेयसको अभिलाषा रखनेवाले जीवोंको सदा ही इन भावनाओंका चिन्तवन करना चाहिए ।। ५८!!
जिसके आदिमें उत्तम क्षमा है, ऐसे दश भेद रूप धर्मका सेवन भी श्रावकोंको यथाशक्ति आगमके अनुसार करना चाहिए ।। ५९॥
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