Book Title: Sharavkachar Sangraha Part 3
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 455
________________ श्रावकाचार संग्रह स्थावरकायेषु सकायापरोपणात् । विरतिः प्रथमं प्रोक्तमहताख्यमणुव्रतम् ॥२४ यद्रागद्वेषमोहादेः परपीडाकरादिह । अनृताद्विरतियंत्र तद्वितीयमणुव्रतम् ॥२५ परद्रव्यस्य नष्टादेमंहतोऽल्पस्य चापि यत् । अदत्तत्वस्य नादानं ततृतीयमणुव्रतम् ॥ २६ दारेषु परकीयेषु परित्यक्तरतिस्तु यः । स्वदारेष्वेव सन्तोषस्तच्चतुर्थ मणुव्रतम् ॥ २७ स्वर्णदासगृहक्षेत्र प्रभृतेः परिमाणतः । बुद्धयेच्छापरिमाणाख्यं पञ्चमं तदणुव्रतम् ॥८ गुणव्रतान्यपि त्रीणि पञ्चाणुव्रतधारिणः । शिक्षाव्रतानि चत्वारि भवन्ति गृहिणः सतः ॥२९ यः प्रसिद्धेरभिज्ञानैः कृतावध्यनतिक्रमः । दिग्विदिक्षु गुणेष्वाद्यं वेद्यं दिग्विरतिव्रतम् ॥३० ग्रामादीनां प्रदेशस्य परिमाणकृतावधि । बहिर्गतिनिवृत्तिर्या तद्देशविरतिव्रतम् ॥३१ पापोपदेशोऽपध्यानं प्रमादाचरितं तथा । हिंसाप्रदानमशुभश्रुतिश्चापीति पञ्चधा ॥३२ पापोपदेशहेतुर्योऽनर्थदण्डोपकारकः । अनर्थदण्डविरतिव्रतं तद्विरतिः स्मृतम् ॥ ३३ पापोपदेश आदिष्टो वचनं पापसंयुतम् । यद्वणिग्वधकारम्भपूर्व सावद्यकर्मसु ॥ ३४ अपध्यानं जयः स्वस्य यः परस्य पराजयः । वधबन्धार्थहरणं कथं स्थादिति चिन्तनम् ॥३५ वृक्षादिच्छेदनं भूमिकुट्टनं जलसेचनम् । इत्याद्यनर्थकं कर्म प्रमादाचरितं तथा ॥ ३६ विषकष्टक शस्त्राग्निरज्जुदण्डकषादिनः । दानं हिंसाप्रदानं हि हिंसोपकरणस्य वै ॥३७ हिंसा रागादिसंवधिदुः कथाश्रुतिशिक्षया । पापबन्धनिबन्धो यः स स्थात्पापाशुभश्रुतिः ॥ ३८ ४३३ वनवासी हो करके भी गृहस्थ है और जिसका रागभाव दूर हो गया है, वह घरमें रहने पर भी अनगार है || २३ || जीव दो प्रकारके हैं- त्रस और स्थावर । इनमेंसे त्रसकायिक जीवोंके विघातसे विरत होना पहला अहिंसा व्रत कहा गया है || २४ || जिसमें राग द्वेष मोहसे प्रेरित होकर परपीड़ा कारक असत्य वचनसे विरति होती है, वह दूसरा सत्याणुव्रत है ।। २५ ।। दूसरेका गिरा पड़ा या भूला हुआ द्रव्य चाहे अल्प हो या अधिक स्वामीके बिना दिये नहीं लेना तीसरा अचौर्याणुव्रत है || २६ ॥ परस्त्रियोंमें राग छोड़कर अपनी स्त्री में सन्तोष करना सो चौथा ब्रह्मचर्याणुव्रत है || २७ ॥ सुवर्ण दास घर खेत आदि पदार्थोंका बुद्धिपूर्वक परिमाण करना सो इच्छापरिमाण नामका पाँचवाँ अणुव्रत है ॥ २८ ॥ पाँच अणुव्रतोंके धारक सद् गृहस्थके तीन गुणव्रत और चार शिक्षात्रत भी होते हैं ॥ २९ ॥ दिशाओं और विदिशाओंमें प्रसिद्ध चिन्होंके द्वारा की हुई सीमाका उल्लंघन नहीं करना सो दिग्व्रत नामका पहला गुणव्रत है || ३० || दिग्व्रतमें यावज्जावनके लिए किये हुए भारी परिमाणके अन्तर्गत अल्प समयके लिए जो ग्राम नगरादिको मर्यादा की जाती है, उससे बाहर नहीं जानेको देशव्रत नामका दूसरा गुणव्रत कहते हैं ।। ३१ ॥ पापोपदेश, अपध्यान, प्रमादचर्या, हिंसादान और दुःश्रुति ये पाँच प्रकार के अनर्थदण्ड हैं ।। ३२ || जो पापके उपदेशका कारण है, वह उपकार करनेवाला अनर्थदण्ड है, उससे विरत होनेको अनर्थदण्डत्याग नामका तीसरा गुणव्रत कहते हैं ॥ ३३ ॥ वणिक् तथा वधक आदिके सावद्य कार्यों में आरम्भ करानेवाले जो पापपूर्ण वचन हैं, वह पापोपदेश अनर्थदण्ड हैं || ३४ ॥ अपनी जीत, दूसरेकी हार, तथा वध, बँधने एवं धनका हरण आदि किस प्रकार हो, ऐसे विचार करनेको अपध्यान कहते हैं ।। ३५ ।। वृक्षादिका छेदना, पृथ्वीका कूटना -खोदना, जलका सींचना, आदि अनर्थक कार्य करना प्रमादाचरित अनर्थदण्ड है || ३६॥ विष कण्टक शस्त्र अग्नि रस्सी डंडा कोड़ा आदि हिंसाके उपकरणोंका देना सो हिसादान अनर्थदण्ड है ।। ३७ ।। हिंसा तथा रागादिक बढ़ानेवाली खोटी कथाओंके सुनने तथा दूसरोंको शिक्षा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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