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रत्नमाला
अबद्धायुष्कपक्षे तु नोत्पत्तिः सप्तभूमिषु । मिथ्योपपादत्रितये सर्वस्त्रीषु च नान्यथा ॥११ महाव्रताणुव्रतयोरुपलब्धिनिरीक्ष्यते । स्वर्गेऽन्यत्र न सम्भाव्यो व्रतलेशोऽपि धोधनैः ॥ १२ संवेगादिपरः शान्तस्तत्त्वनिश्चयवान्नरः । जन्तुर्जन्मजरातीतां पदवीमवगाहते ॥ १३ अणुव्रतानि पञ्चैव त्रिप्रकारं गुणव्रतम् । शिक्षाव्रतानि चत्वारीत्येवं द्वादशधा व्रतम् ॥१४ हिसातोऽसत्यतश्चौर्यात् परनार्याः परिग्रहात् । विमतेविरतिः पञ्चाणुब्रतानि गृहेशिनाम् ॥ १५ गुणव्रतानामाद्यं स्याद्दिग्व्रतं तद्वितीयकम् । अनर्थदण्डविरतिस्तृतीयं प्रणिगद्यते ॥ १६ भोगोपभोगसंख्यानं शिक्षाव्रतमिदं भवेत् । सामायिकं प्रोषधोपवासोऽतिथिषु पूजनम् ॥१७ मारणान्तिकसल्लेख इत्येवं तच्चतुष्टयम् । देहिनः स्वर्गमोक्षैकसाधनं निश्चितक्रमम् ॥१८ मद्यमांसमधुत्यागसंयुक्ताणुव्रतानि नुः । अष्टौ मुलगुणाः पञ्चोदुम्बरैश्चार्भकेष्वपि ॥१९ वस्त्रपूतं जलं पेयमन्यथा पापकारणम् । स्नानेऽपि शोधनं वारः करणीयं दयापरैः ॥२० प्रतिमाः पालनीयाः स्युरेकादश गृहेशिनाम् । अपवर्गाधिरोहाय सोपानन्तीह ताः पराः ॥२१ कलौ काले वने वासो वर्ज्यते मुनिसत्तमैः । स्थीयते च जिनागारे ग्रामादिषु विशेषतः ॥२२ तेषां नैग्रन्थ्यपूतानां मूलोत्तरगुणाथिनाम् । नानायति निकायानां छद्यस्थज्ञानराजिनाम् ॥२३ ज्ञानसंयमशौचादिहेतुनां प्रासुकात्मनाम् । पुस्तपिञ्छकमुख्यानां दानं दातुविमुक्तये ॥२४ उपपादजन्मवालोंमें अर्थात् भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें और सर्वप्रकारको स्त्रियोंमें उत्पत्ति नहीं होती है, यह शास्त्र-वचन अन्यथा नहीं है | ११ || महाव्रत और अणुव्रतकी प्राप्ति एक मात्र इस भूलोक में ही देखी जाती है, स्वर्ग में या अन्यत्र ( नरकमें) तो बुद्धिके धनी ऐसे देवों या नारकियोंके तो व्रतका लेश भी संभव नहीं है ॥ १२ ॥ जो प्रशम संवेग आदि गुणोंका धारक है, शान्तचित्त है, तत्त्वोंका दृढ निश्चय वाला है, ऐसा जीव ही जन्म-जरासे रहित पदवीको प्राप्त करता है ||१३||
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पांच अणुव्रत, तीन प्रकारके गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत ये बारह प्रकारके श्रावक व्रत होते हैं ||१४|| हिंसासे, असत्यसे, चोरीसे, परनारीसे, परिग्रहसे और विमति अर्थात् मिथ्यात्व बुद्धिसे अथवा पाप बुद्धिसे विरति होना गृहस्थोंके पांच अणुव्रत कहलाते हैं ||१५|| तीन गुणव्रतोंमें पहिला दिग्व्रत है, दूसरा अनर्थदण्ड विरति है और तीसरा भोगोपभोग संख्यान कहा गया है। सामायिक, प्रोषधोपवास, अतिथिपूजन और मारणान्तिकी सल्लेखना ये चार शिक्षाव्रत कहे गये हैं । निश्चित क्रमवाले ये बारह व्रत प्राणीके स्वर्ग और मोक्षके अद्वितीय साधन हैं ।। १६-१८ ॥
मद्य, मांस, मधुके त्याग से संयुक्त पांचों अणुव्रत मनुष्योंके आठ मूलगुण कहे गये हैं । पाँच उदुम्बर फलोंके साथ मद्य, मांस, मधुके त्यागरूप आठ मूलगुण तो बालकों और मूर्खोमें भी होते हैं || १९|| मनुष्योंको सदा वस्त्रसे पवित्र ( गाला-छना हुआ) जल ही पीना चाहिए। अन्यथा अगालित जल पीना पापका कारण है। स्नानमें भी दयातत्पर जनोंको जलका शोधन (गालन) करना चाहिए ||२०|| मनुष्यों को श्रावकोंको ग्यारह प्रतिमाएं पालन करना चाहिए। क्योंकि ये प्रतिमाएँ अपवर्ग (मोक्ष) रूप महलपर आरोहण करनेके लिए उत्तम सोपान -पंक्तिरूप हैं ॥२१॥ श्रेष्ठ मुनियोंके द्वारा कलिकालमें वनवास छोड़ा जा रहा है, वे जिनालय में और विशेषतया ग्रामादिकमें रहने लगे हैं। ऐसे उन निर्ग्रन्थतासे पवित्र, मूल और उत्तर गुणोंके अभिलाषी, और छद्मस्थ-ज्ञानवाले नाना प्रकारके साधु-समूहों को ज्ञान, संयम और शौच आदिके कारणभूत प्रासुक स्वरूपवाले पुस्तक, १. अर्मकस्तु मतो डिम्भे मूर्खो भ्रूणे कृशेऽपि च, विश्वलोचनकोश ।
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