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सत्त्वार्थसूत्रगत उपासकाध्ययन योगदुष्प्रणिधानानावरस्मृत्यनुपस्थानानि ॥३३॥ अप्रत्यवेक्षिताप्रमाजितोत्सर्गादानसंस्तरोपक्रमणानादरस्मृत्यनुपस्थानानि ॥३४॥ सचित्तसम्बन्धसम्मिधाभिषवदुःपकाहाराः ॥३५॥ सचित्तनिक्षेपापिधानपरव्यपदेशमात्सर्यकालातिकमाः ॥३६॥ जीवितमरणाशंसामित्रानुरागसुखानुबन्धनिदानानि ॥३७॥ अनुग्रहार्थं स्वस्यातिसर्गो दानम् ॥३८॥ विधिद्रव्यदातपात्रविशेषात्तद्विशेषः ॥३९॥
इति तत्त्वार्याधिगमे मोक्षशास्त्रे सप्तमोऽध्यायः ।
विना देखे शोधे विचारे मन वचन कायकी निरर्थक क्रिया करना और उपभोग-परिभोगकी अनावश्यक वस्तुओंका संग्रह करना, ये पांच अनर्थदण्डव्रतके अतीचार हैं ॥३२॥
सामायिक करते समय मनका खोटा उपयोग रखना, अशुद्ध वचन बोलना, कायका डांवाडोल रखना, सामायिक में आदरभाव नहीं रखना और कभी-कभी सामायिक करना भूल जाना, ये सामायिकवतके पांच अतीचार हैं ।।३३।। प्रोषधोपवासके दिन विना देखे विना शोधे किसी वस्तुको रखना, उठाना और बिछाना, उपवासमें आदरभाव नहीं रखना, तथा पर्वके दिन कभी-कभी उपवास करना भूल जाना ये पांच प्रोषधोपवास व्रतके अतीचार हैं ॥३४॥ सचित्ताहार, सचित्त सम्बद्धाहार, सचित्तसन्मिश्राहार, अभिषवाहार (उत्तेजक भोजन) और दुःपक्वाहार, ये पांच उपभोगपरिभोग परिमाण व्रतके अतीचार हैं ॥३५।। सचित्त पत्रादिपर भोज्य वस्तुका रखना, सचित्त पत्रादिसे आहारका ढांकना, दूसरे भी दाता हैं, ऐसा कहना, दानमें मात्सर्यभाव रखना और भिक्षाकालका अतिक्रमण करना, ये पांच अतिथिसंविभाग व्रतके अतीचार हैं ॥३६॥ सल्लेखना धारण करनेके पश्चात् जीनेको आशा करना, मरनेकी अभिलाषा करना, मित्रोंमें अनुराग रखना, पूर्व भोगे हुए सुखोंका स्मरण करना और निदान करना ये पांच अतिथिसंविभागवतके अतीचार हैं ॥३७॥
अब दानका स्वरूप कहते हैं
अपने और परके उपकारके लिए धनके त्याग करनेको दान कहते हैं ॥३८॥ इस दानमें विधि, द्रव्य, दाता और पात्रको विशेषतासे विशेषता होती है ॥३९॥
भावार्थ-जैसी हीनाधिक विधिसे शुद्ध-अशुद्ध द्रव्य उत्तम-मध्यम गुणोंका धारक दाता उत्तम, मध्यमादि पात्रोंको दान देगा, तदनुसार ही उसके दानके फलमें भी भेद हो जायगा। इस प्रकार तत्त्वार्थाधिगम मोक्षशास्त्रमें श्रावकाचारका वर्णन करनेवाला
सातवां अध्याय समाप्त हुवा।
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