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भव्यमार्गोपदेश उपासकाध्ययन
पूजाभिषेके प्रतिमासु प्राप्ते जिनालये कर्मणि देवकायें ।
सावद्यरूपं तु वदन्ति येऽपि जनाश्च ते दर्शनघातकाः स्युः ॥ ३५७
पूजा च विधिमानेन सावद्यं सिन्धुमुष्टिवत् । यथा न शक्यते दृष्यं तथा पुण्यं न दृष्यते ॥ ३५८ जिनाभिषेकस्य जिनार्चनस्य जिनप्रतिष्ठाजिन कोत्तितस्य । तत्पुण्य सन्दोहभरं तु नूनं कि वर्णयामि जडमानसोऽहम् ॥३५० इत्येवमेताः प्रतिमा चतस्रस्तिष्ठन्ति भव्यस्य सुसंयतस्य । यत्पञ्चमीयं प्रतिमाविधानं तं कथ्यमानं शृणु मागधेश || ३६०
अपक्वमर्धपक्वं तु शीतलत्वेन संस्थितम् । हरितं शीतलं तोयं वर्जयेत्पश्च मे व्रते ॥ ३६१ दिवाब्रह्म सदा षष्ठे ब्रह्मचयं तु सप्तमे । आरम्भादीनि कार्याणि वर्जयेच्चाष्टमे व्रते ॥३६२ नवमे च सुखी गेहे तिष्ठेत्त्यक्त्वा परिग्रहम् । दशमेऽनुमतिस्त्याज्या पृथक्त्वं गृहतो मतम् ॥३६३ मुण्डयित्वा मनो मुण्डं त्यक्त्वा स्वोदिष्टभोजनम् । पात्रे भिक्षाटनाद भैक्ष्यं कौपीनं क्षुल्लके व्रतम् ॥३६४
करने के पूर्व देवोंका आह्वान करके और पूजन करके उनका विसर्जन करे। क्योंकि ये सर्व देव जिनदेवके भक्तजनोंकी सदा शान्तिको करते हैं ||३५६||
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जो लोग प्रतिमाओं के पूजनमें, अभिषेक में जिनालय के निर्माणमें, देव-प्रतिमाके निर्माण में एवं अन्य देव-सम्बन्धी कार्यमें सावद्यरूप (पापयुक्त कार्य ) कहते हैं, वे मनुष्य अपने और दूसरोंके सम्यग्दर्शन के घातक होते हैं || ३५७|| जिस प्रकार मुट्ठी भर दुषित वस्तु अपार सिन्धुके जलको दूषित नहीं कर सकती है उसी प्रकार पूजन-विधान से प्राप्त होनेवाले अपार पुण्यको अल्प सावद्य भी दूषित नहीं कर सकता है || ३५८|| जिनाभिषेकका, जिन-पूजनका, जिनप्रतिष्ठाका और जिनगुण-कीर्तन करने का जो महान् पुण्य समुदायका भार प्राप्त होता है, उसे मैं जड़ बुद्धिवाला मनुष्य क्या वर्णन कर सकता हूँ || ३५९ ||
इस प्रकार उपर्युक्त यह चार प्रतिमाओंका विधान जिस सुसंयत भव्यजीवके होता है, उसके उक्त चार प्रतिमाएँ रहती हैं । अर्थात् यहाँ तक दार्शनिक, व्रतिक, सामायिक और प्रोषध प्रतिमाका वर्णन किया । अब हे मागधेश श्रेणिक, इससे आगे पंचमी ( आदि) प्रतिमाका विधान कहा जाता है सो उसे सुनो || ३६०|| जो अन्न, बीज, पत्र, पुष्प आदिक अपक्व है, या अर्द्धपक्व है, या शीतलरूपसे स्थित है, हरित है और जो शीतल (कच्चा) जल है, उस सबको पंचम व्रतमें त्याग करना चाहिए । भावार्थ - किसी भी सचित्त वस्तुको नहीं खाना चाहिए और न सचित्त जल ही पीना चाहिए । यह सचित्त त्याग नामकी पाँचवीं प्रतिमा है ॥ ३६१ || छठीं दिवा ब्रह्मचर्यप्रतिमा में सदा दिनको ब्रह्मचर्य धारण करना चाहिए। सातवीं प्रतिमा में सदा ही ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए, आठवीं आरम्भत्यागप्रतिमा में सेवा, कृषि, वाणिज्य आदि सभी प्रकारके आरम्भ कार्यों का त्याग करना चाहिए ॥३६२॥ नवमीं प्रतिमामें सर्वपरिग्रहका त्याग करके घरमें सुखपूर्वक रहना चाहिए । दशवीं प्रतिमा में गृहकार्योंमें अनुमति देनेका त्याग करना चाहिए । ग्यारहवीं प्रतिमा में घरसे पृथक् होकर, शिर मुड़ाकर मनको भी मुडितकर और अपने उद्देश्यसे वने हुए भोजनके खानेका त्यागकर पात्रमें भिक्षावृत्तिसे गोचरी करते हुए कौपीन (लँगोटी ) को क्षुल्लक
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