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भव्यधर्मोपदेश उपासकाध्ययन
अविश्वस्ताः प्रपचढिया वेश्यायाः पञ्चता ध्रुवम् ।
कामान्धा न हि पश्यन्ति दोषादोषान् गुणागुणान् ॥१२५
लज्जां मानं धनं जीवं धर्मं देवं कुलस्त्रियः । नश्यन्ति सर्वथा सर्वे बुद्धयाद्या बहवो गुणाः ॥१२६ कुलीनो मानसंयुक्तो वेश्यासक्तो भवेद् यदा । तदा तस्य कुलं मानं गतं शीलव्रतान्वितम् ॥ १२७ पापद्धर्या च महाघोरे सप्तमे नरके व्रजेत् । यस्माज्जीवो भवेद् वध्यस्तस्य हन्ता कथं सुखी ॥१२८ जैनाचारे व्रते पूर्वे प्राणदानमुदाहृतम् । प्राणिहिंसा कृता येन तेन साम्यं विनाशितम् ॥१२९ विश्वासघातका ये तु ये तु भीतादिघातकाः । बलेन दुर्बलं घ्नन्ति नरकं ते प्रयान्ति हि ॥१३० अन दुर्बलं हन्ति पापं किं न भविष्यति । गौ-ब्राह्मणादिहत्यापि पापं तस्य प्रजायते ॥ १३१ अहिंसां प्राणिवर्गस्य धर्मार्थी कुरुते सदा । सर्वप्राणिदया येषां तेषां धर्मो महाद्भुतः ॥१३२ सुखार्थी कुरुते धर्मं धर्मो यो हि दयान्वितः । पापद्धिहि कृता येन तेन धर्मो विनाशितः ॥ १३३ मार्जारं मण्डलं पक्ष ' यदा त्यक्तं सुनिश्चितम् । तदा निवारिता तेन पापद्विर्याऽतिदारुणा ॥१३४ परद्रव्यापहारश्च महापापं सुदारुणम् । इहलोके महादुःखं परलोके तथा ध्रुवम् ॥१३५ पाणिपाद शिरश्छेदो शूलमा रोपणं तथा । चौर्यवृत्तेः फलं ज्ञेयं तस्माद् भव्यो विवर्जयेत् ॥१३६
के योग्य नहीं रहते हैं और अन्त में वे निश्चितरूपसे मरणको प्राप्त होते हैं || १२५ || वेश्यागामियों की लज्जा, मान, धन, जीवन, धर्म, देव, कुलवन्ती स्त्रियाँ ये सभी विनष्ट हो जाते हैं, तथा बुद्धि आदि और भी बहुत से गुण नष्ट हो जाते हैं || १२६ || जब कोई स्वाभिमान - संयुक्त कुलीन पुरुष वेश्या में आसक्त हो जाता है, तब उसके कुलका विनाश हो जाता है और शीलव्रत-युक्त मान भी चला जाता है ॥१२७॥
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पाँचवां व्यसन पार्पाद्ध अर्थात् शिकार खेलना है । शिकार खेलनेसे मनुष्य महाघोर सातवें नरक में जाता है, क्योंकि जब तक कोई जीव शिकारीके द्वारा घात किया जा रहा है तब तक उसका मारनेवाला सुखी कैसे हो सकता है ॥१२८॥ जैन आचारमें सबसे पहिले व्रतमें प्राणियोंके प्राणोंका दान अर्थात् अहिंसा ही कहा गया है । और जिसने प्राणियोंकी हिसा की, उसने साम्यभावका विनाश किया || १२९|| जो पुरुष विश्वास घाती हैं, और जो भय-भीत प्राणियोंके घातक हैं, तथा अपने बलसे जो निर्बलको मारते हैं वे नियमसे नरक जाते हैं || १३० || दुर्बलका घात करना महान् अनर्थ है, जो दुर्बलको मारता है, उसके कौनसा पाप नहीं होगा ? उसके तो गौ-ब्राह्मण आदिकी हत्याका भी पाप होता है ॥ १३१ ॥ धर्मका अभिलाषी पुरुष तो सदा प्राणि वर्गकी अहिंसाको ही करता है, अर्थात् धर्मार्थी किसी जीवकी हिंसा नहीं करता है । क्योंकि जिनके सर्वप्राणियोंकी दया है, उनके ही महान अद्भुत धर्म होता है || १३२ ॥ | सुखाभिलाषी पुरुष धर्मको करता है और धर्म वही है जो कि दयासे युक्त है । जिसने शिकार खेली, उसने अहिंसा धर्मका ही विनाश कर दिया || १३३ || जिसने शिकारी बिल्ली, कुत्ते और पक्षियोंका पालन करना छोड़ दिया, उसने अति दारुण पापद्ध को छोड़ दिया, यह सुनिश्चित है || १३४||
छठा व्यसन चोरी करना है । दूसरेके द्रव्यका अपहरण करना महाभयंकर पाप है । यह पाप इस लोक में भी महा दुःखोंको देता है और परलोकमें भी नियमसे महा- दुःखों को देता है || १३५ || चोरी करनेवालेके इसी लोकमें हाथ, पैर और शिर काटे जाते हैं, तथा शूली पर चढ़ाया जाता है, चोरी करनेका ऐसा खोटा फल जानकर भव्य पुरुषको चोरी करना छोड़ना चाहिए || १३६ || पराये द्रव्यको चुरानेके समान ही मानकूट ( नापने में छल करना) तुलाकूट
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