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व्रतोदोतन-श्रावकाचार
२५६ कायक्लेशो मधुरवचनो जैनधर्मोपदेशो ध्यानी मौनी समपरिगतिर्मोक्षवानुभावी। पात्राभ्यर्थो विषयपदवीत्यक्तबुद्धिर्विचारो यो रुच्याङ्गो भवति स नरो ह्यागतो देवयोनेः ॥४३८ समवशरणलोला प्रातिहार्यप्रभावातिशयविहितलक्ष्मीविस्तरे: सेव्यमानः । सकलविमलमूत्तिः केवलज्ञानदृष्टिस्त्रिभुवनपतिपूज्यो राजतेऽसौ जिनेन्द्रः ॥४३९ समस्तभव्यलोकानां भाषते दिव्यया गिरा । व्रतातिचारसम्बन्धं पुण्याय जिनपुङ्गवः ॥४४० जीवस्य ताडनं बन्धच्छेदो भारातिरोपणम् । अन्नपाननिरोधश्च प्रथमवतदूषणम् ॥४४१ मिथ्योपदेशनैकान्तव्याख्यानं कूटलेखनम् । न्यासमन्त्रप्रभेदौ च द्वितीयक्तदूषणम् ॥४४२ स्तेनवस्तु तदानीतं राज्ञोऽनाजान्यनिरूपकम् । तुलामानाधिकेनैव तृतीयवतदूषणम् ॥४४३
......... .... .... .... ..." चतुर्थवतदूषणम् ।।४४४
..... ... ... ... ... ... पञ्च मवतदषणम ॥४४५ रक्षा करने वाला है, साधु-स्वभाववाला है। सबसे प्रीति रखता है, आकुलता-रहित वचनवाला है, रत्नत्रयसे अलंकृत है, उदार गुणवाला है और धार्मिक है, वह मनुष्यभवसे आया है, ऐसा समझना चाहिए ।।४३७।। जो कायक्लेश तप करनेवाला है, मधुर वचन बोलता है, जैन धर्मका उपदेश देता है, ध्यान करता है, मौन रखता है, समान परिणति वाला है. मोक्षमार्गपर चलनेवाला है, पात्रोंको अभ्यर्थना करता है, इन्द्रियोंके विषयोंकी पदवीमें त्यक्त बुद्धि है, विचारक है, और जो मनमें धर्मके प्रति रुचि , अर्थात् श्रद्धा रखता है, वह देवयोनिसे आया है, ऐसा समझना चाहिए ॥४३८।। जिनको समवशरणकी शोभा, प्रातिहार्योंके प्रभाव, जन्मादिके अतिशयोंसे प्राप्त लक्ष्मीके विस्तारसे सेवा की जा रही है, शरीर-सहित होते हुए भी जो विमलमूर्ति और केवलज्ञान दृष्टिवाले हैं, तीनों लोकोंके स्वामी शत इन्द्रोंसे पूज्य हैं, ऐसे जिनेन्द्रदेव शोभायमान हैं ॥४३९॥ जो समस्त भव्य जीवोंके कल्याणके लिए दिव्य वाणोसे उपदेश देते हैं, उन जिनेन्द्रदेवने जीवोंके पुण्यके सम्पादनार्थ व्रतोंके अतिचारोंका सम्बन्ध इस प्रकार कहा है ।।४४०॥
जीवको ताड़ना, बांधना, अंग छेदना, अधिक भार लादना और अन्न-पानका निरोध करना ये प्रथम अहिंसावतके दूषण (अतिचार) हैं ॥४४१॥ मिथ्या उपदेश देना, एकान्तकी बातको कहना, कूटलेख लिखना, न्यास (धरोहर) का अपहरण करना और दूसरेके मंत्रका भेद करना ये दूसरे सत्याणुव्रतके दूषण हैं ॥४४२॥ चोरीको भेजना, चोरीसे लायो वस्तु लेना, राजाकी आज्ञाका अतिक्रम करना, प्रतिरूपक व्यवहार करना और नाप-तौलके बांट आदि होनाधिक रखना ये तीसरे अचौर्याणुव्रतके दूषण हैं ॥४४३।। परविवाह करना, इत्वरिकाके यहां जाना, अनंगक्रीडा करना, विट-चेष्टा करना और काम-सेवनकी तीव्र अभिलाषा रखना ये चौथे ब्रह्मचर्याणुव्रतके दूषण हैं ।।४४४॥
विशेषार्थ-प्राप्त प्रतियोंमें ब्रह्मचर्याणुव्रतके और परिग्रह परिमाणवतके अतीचार बतानेवाले दो श्लोक उपलब्ध नहीं हैं। किन्तु श्लोक ४४६ में 'इत्थंपञ्चाणुव्रतमनतिचारं' वाक्यको देखते हुए दोनोंके अतीचारोंका होना आवश्यक है, यह समझकर श्लोक ४४४ वेंके अर्थके पूर्व कोष्टकमें ब्रह्मचर्याणुव्रतके अतीचारोंको लिख दिया गया है।
(परिग्रहपरिमाणवतके अतीचार श्रावकाचारोंमें दो प्रकारसे पाये जाते हैं । रत्नकरण्डकके अनुसार-१. अतिवाहन, २. अतिसंग्रह, ३. विस्मय ४. अतिलोभ और ५. अतिभार-वहन ये पांच अतीचार हैं । तथा सागारधर्मामृतके अनुसार-१. वास्तु-क्षेत्र-योग, २. धन-धान्य-बन्धन, ३. कनक
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