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श्रावकाचार-संग्रह
तत्र श्रीयुगादिनाथो बभूव । तस्य पुत्रोऽनन्तवीर्यं आसीत् । तेन च पितुः प्रसादतो बहुकाल राज्यमकारि । पश्चाद बाहुबलिभरतयुद्धमालोक्य स राजा मेदिनों तत्याज । नाभेयसमीपे atri गृहीत्वा बाह्याभ्यन्तरतपश्चरणं कुर्वीत । त्रयोदशप्रकारचारित्रं प्रतिपाल्य ध्यानेन कर्मक्षयं कृत्वा मुक्तिकान्तां समालिलिङ्गे । तत्र च सम्यक्त्वकारणम् ।
इत्यूचे भव्यलोकानां धर्मं धर्मोपदेशनम् । जिनेश्वरो जिनस्वामी कमलासनसंस्थितः ॥ ५३८ सिद्धिकान्तागुणग्राही शुद्धोऽनन्तचतुष्टयी । निःकलः प्रोच्यते सिद्धो रत्नत्रयविराजितः ॥ ५३९ सकलो निःकलो देवो वीतरागो जिनेश्वरः । स भव्यदुरितं हन्ति मुक्तिकान्तासमृद्धये ॥५४० दुःखक्षयकर्मक्षय बोधिसमाधिस्वभावमरणानि । अस्माकं सो वितरतु जिनपदपङ्केरुहालीनम् ॥५४१ कारापितं प्रवरसेनमुनीश्वरेण ग्रन्थं चकार जिनभक्त बुधानदेवः । यस्तं शृणोति स्वहितप्रतिमैकबुद्धया प्राप्नोति सोऽक्षयपदं परमं पवित्रम् ॥५४२ इति श्री अदेव - विरचितव्रतोद्योतनश्रावकाचारः सम्पूर्णः ।
(अयोध्या) नगरीमें जन्म लिया || ५३७||
उस समय वहाँ इस युगके आदि तीर्थंकर श्री ऋषभदेव राज्य कर रहे थे, वह स्वर्गका देव उनके अनन्तवीर्यं नामका पुत्र हुआ । अपने पिता के प्रसादसे उसने बहुत कालतक राज्य किया । पश्चात् बाहुबलि और भरतका युद्ध देखकर राजा अनन्तवीर्यने पृथ्वीका राज्य छोड़ दिया और नाभिनन्दन श्री ऋषभदेवके समीप जाकर और दीक्षा ग्रहण कर बाह्य और आभ्यन्तर तपश्चरण करने लगा । तेरह प्रकारके चारित्रका पालन कर और ध्यानके बलसे कर्मोंका क्षय करके मुक्ति कान्ताका आलिंगन किया अर्थात् मोक्ष प्राप्त किया । इसमें सम्यक्त्व ही मूल कारण था ।
इस प्रकार समवसरणके मध्य कमलासनपर विराजमान जिनस्वामी जिनेश्वर देवने भव्य लोगोंका धर्म और धर्मोपदेश कहा || ५३८ || वे जिनेश्वरदेव सिद्धिकान्ताके गुणोंके ग्राहक हैं, शुद्ध हैं, और अनन्त चतुष्टयके धारक हैं । जो रत्नत्रय से विराजमान शरीर - रहित हैं, वे सिद्ध परमात्मा कहे जाते हैं ||५३९|| ये वीतराग सकल परमात्मा जिनेश्वरदेव और निःकल परमात्मा सिद्ध भगवान् मुक्ति कान्ताको समृद्धि के लिए भव्य जीवोंके पापका विनाश करते हैं ||५४० ॥ वे जिनेश्वरदेव जिन-चरण-कमलोंके भ्रमररूप हम लोगोंका दुःख-क्षय करें, कर्म-विनाश करें, बोधि प्रदान करें और समाधिस्वभाव युक्त मरण वितरण करें || ५४१||
यह ग्रन्थ श्री प्रवरसेन मुनीश्वरने कराया और जिनदेवके भक्त विद्वान् अभ्रदेवने बनाया । जो भव्य जीव अपने हितके प्रति प्रेरित होकर एकाग्र बुद्धिसे इसे सुनता है, वह परम पवित्र अक्षय पदको प्राप्त करता है ||५४२ ||
इस प्रकार श्री अभ्रदेव - विरचित व्रतोद्योतन श्रावकाचार सम्पूर्ण हुआ ।
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