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श्रावकाचार-संग्रह
गोदार्यधेयं सौन्दयं भाग्य सौभाग्यशालिनी । अनन्तमतिसंयुक्ता सुताऽनन्तमती तयोः ॥ ३३९ अथ नन्दीश्वराष्टम्यां धर्मकीत्तिमुनेः पुरः । गृहीतं श्रेष्ठिना ब्रह्मव्रतं च ग्राहिता सुता ॥ २४० सम्प्रदानस्यकाले सा चैवं जनकमूचुषी । किमर्थं क्रियते तात वृथैवायं परिश्रमः ॥२४१ त्वयैव दापितं ब्रह्मचयं मे गुरुसन्निधौ । तत्किमत्र विवाहार्थं खिद्यते तात साम्प्रतम् ॥२४२ व्रतमर्हति कस्त्यक्तुं गृहीतं गुरुसन्निधौ । अशे वान्ते स्वयं धत्ते को जिधित्सां बुधोत्तमः ॥२४३ तनूजेऽष्टदिनान्येव विनोदेन मया तदा । दापितं ब्रह्मचर्यं ते तत्पितेत्युदचीचरत् ॥ २४४ व्रते धर्मे विधातव्यो विनोदो न क्वचित्पितः । भट्टारकैरपि स्पष्टं तथा नैवं विवक्षितम् ॥ २४५ संसारे जन्मिनामत्र केवलं मरणं वरम् । न पुनर्देशकालेऽपि गृहीतव्रतखण्डनम् ॥ २४६ शृणु त्वं तात शृण्वन्तु सर्वे व्योम्नि सुरासुराः । एतस्मिन् जन्मनि स्पष्टं विवाहनियमो मम ।। २४७ तस्कन्धवने साथ विकटं चित्तमर्कटम् । विनोदयति सिद्धान्तपारीणधिषणा सती ॥२४८ वैतादक्षिणश्रेण्यां स किन्नरपुरेश्वरः । वधिष्णुप्रतिभोऽथाभून्नाम्ना कुण्डलमण्डनः ॥ २४९ एकवाsसौ सुकेश्यामा गच्छन्नभसि दृष्टवान् । दोलाकेलिवतों गेहोद्यानेतां श्रेष्ठिनः सुताम् ॥ २५० पञ्चबाणस्फुरद्बाणव्रातघात निपीडितः । तद्रूपालोकनादेष खगेशः समभाषत ॥ २५१ यस्येग्युवती स्नेहवती रूपवती सती । नास्ति गेहे वृथा तस्य जीवितं भुवनस्य ॥२५२
उसकी भाग्य - सौभाग्यसे सम्पन्न अंगवती नामकी सती स्त्री थी || २३८ || इन दोनोंके उदारता, धीरता, सुन्दरता, भाग्य और सौभाग्यवाली तथा अनन्त बुद्धिसे संयुक्त अनन्तमती नामकी पुत्री थी ॥ २३९ ॥ एक समय नन्दीश्वर पर्वकी अष्टमीके दिन धर्मकीर्ति मुनिके आगे उस प्रियदत्त सेठने स्वयं ब्रह्मचर्यव्रत (आठ दिनके लिए ) ग्रहण किया और (कुतूहल वश) लड़कीको भी ब्रह्मचर्यव्रत ग्रहण करा दिया || २४० || जब पुत्रीके विवाहका समय आया तब सम्प्रदान ( वाग्दान - सगाई) के समय उसने अपने पितासे कहा - हे तात, यह व्यर्थ परिश्रम आप क्यों कर रहे हैं || २४१ ॥ आपने ही गुरुके समीप मुझे ब्रह्मचर्यव्रत दिलाया है, तब हे तात, आप इस समय विवाह करनेके लिए क्यों खेद - खिन्न हो रहे हैं ॥२४२|| गुरुके समीप ग्रहण किये हुए व्रतको छोड़नेके लिए कौन योग्य हो सकता है | कोन ज्ञानियोंमें श्रेष्ठ मनुष्य स्वयं वमन किये गये अन्नको खानेकी इच्छा करता है । अर्थात् कोई भी नहीं ॥२४३|| तब उसके पिताने कहा - हे पुत्र, उस समय मैंने विनोदसे ही तुझे आठ दिनके लिए ब्रह्मचर्यव्रत दिलाया था ||२४४|| अनन्तमतीने कहा - हे पितः, व्रत और धर्मके विषयमें कभी विनोद नहीं करना चाहिए । और उस समय भट्टारक (गुरु) महाराजने भी तो यह बात स्पष्ट नहीं कही थी || २४५ || इस संसार में प्राणियोंका केवल मर जाना अच्छा है, किन्तु किसी भी देश और कालमें ग्रहण किये गये व्रतका खंडन करना अच्छा नहीं है || २४६ || हे तात, आप सुनिये और आकाश में स्थित सभी सुर और असुर सुनें - इस जन्ममें मेरे स्पष्टरूपसे विवाहका त्याग है ||३४७ || इसके पश्चात् वह अनन्तमती सिद्धान्त शास्त्रोंमें पारंगत होनेकी बुद्धिसे अपने मनरूपी चंचल वानरको श्रुतस्कन्धरूप वन में विनोद कराने लगी || २४८ ||
विजयाचं पर्वतकी दक्षिणश्रेणीमें जिसकी प्रतिभा उत्तरोत्तर बढ़ रही है, ऐसा कुण्डल मण्डल नामक विद्याधर किन्नरपुरका स्वामी था || २४९ || एक बार वह अपनी सुकेशी नामकी रानीके साथ जब आकाशमार्गसे जा रहा था, तब उसने घरके उद्यानमें दोलाकेलि करती हुई सेठकी पुत्री इस अनन्तमतीको देखा || २५० | उसके सुन्दर रूपके देखनेसे कामदेव के बाण समूहके घातसे पीड़ित होता हुआ यह विद्याधरेश बोला - - ( मनमें विचारने लगा ) जिस पुरुषके घरमें ऐसी
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