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श्रावकाचार-संग्रह
उक्तं च- मायासंयमिनः सूर्पनाम्नो रत्नापहारिणः । श्रेष्ठी जिनेन्द्रभक्तोऽसौ कृतवानुपगूहनम् ॥४११ अस्य कथा - सुराष्ट्रमण्डले रम्ये पाटलीपुत्रनामनि ।
पुरे भूरि यशोव्याप्तदिग्मुखोऽभूद् यशोधरः ॥४१२ सुसीमाकुक्षिमम्भूतः सुवीरस्तत्तनूरुहः । सप्तव्यसनसन्तप्तस्तस्क रोत्क रसेवितः ॥४१३ ताम्बुलतुन्दिलस्फार कपोलं पापपङ्किलम् । सुवीरमन्यदा धीरं कश्चिदेवं व्यजिज्ञपत् ||४१४ गौडदेशे प्रसिद्धेऽस्मिन् लक्ष्मोलीलाविराजिते । ताम्रलिप्तः समाख्याता पुरी स्वर्गपुरीनिभा ॥४१५ उदारश्रावकाचारविचारणविशिष्टधीः । श्रेष्ठी जिनेन्द्रभक्तोऽस्ति जिनभक्तिपरायणः ॥४१६ सप्तक्षणे स्फुरच्छोभे प्रासादेऽस्य वाणिक्पतेः । अस्ति श्रीपार्श्वनाथस्य प्रतिमा मणिनिर्मिता ॥४१७ आकण्यं लोभसम्पूर्णस्तूर्णमेवमवोचत । किं कस्याप्यस्ति सामर्थ्यं तामानेतुं लसत्प्रभाम् ॥४१८ आत्मानं स्फोरयंश्चौरः स्वर्षो दर्पभराननः । सुवीरं निजितारातिमेवं हर्षादवोचत ॥४१९ शक्रस्य निर्जितारातिचक्रस्यापि शिरः स्थितम् | कोटीरं हीरसङ्कीर्णमानयानि प्रभो क्षणात् ॥४२० व्रज साधि वरं कृत्यं पन्थानः सन्तु ते शिवाः । इत्यादेशं प्रभोः प्राप्य सूर्पका निरगात्पुरात् ॥४२१ कपटेन शठो वेषं क्षुल्लकस्य स तस्करः । धृत्वा बभ्राम सर्वत्र दुश्चरित्रकलङ्कितः ॥४२२ अत्यन्ततनुशोषेण वेषेण ब्रह्मचारिणः । क्षोभयामास मायावी नगरग्राममण्डलम् ॥४२३ नता प्राप्त नहीं होती है, उसी प्रकार नीचजनोंके अपराधोंसे कहीं पर भी कभी जिनशासनके मलिता नहीं प्राप्त हो सकती है ||४१०||
कहा भी है- रत्नमयी प्रतिमाका अपहरण करनेवाले सूर्य नामके मायावी संयमीका उपगूहन उस जिनेन्द्र भक्त सेठने किया ||४११ ॥
इसकी कथा इस प्रकार है-सुराष्ट्र प्रान्तके रमणीय पाटलीपुत्र नामके नगरमें अपने भारी यशसे दिशामुखोंको व्याप्त करनेवाला यशोधर नामका एक व्यक्ति था || ४१२ ॥ उसकी सुसीमा नामकी स्त्रीकी कूखसे सुवीर नामका एक पुत्र उत्पन्न हुआ । वह सातों ही व्यसनोंका सेवन करनेवाला था और चोरोंके समूहसे सेवित था, अर्थात् चोरोंका सरदार था ॥ ४१३ || किसी एक दिन किसी व्यक्तिने ताम्बूलसे जिसका मुख भरा हुआ था, जिसके कपोल विशाल थे और जो पापपंकसे युक्त था, ऐसे उस सुवीरसे कहा - लक्ष्मीकी लीलासे विराजित इस प्रसिद्ध गौडदेश में स्वर्गपुरीके सदृश ताम्रलिप्ता नामकी नगरी है ||४१४ - ४१५।। वहाँपर उदार श्रावकके आचार-विचार करनेमें विशिष्ट बुद्धिका धारक और जिनभक्तिमें परायण एक जिनेन्द्र भक्त सेठ रहता है || ४१६।। इस सेठके प्रकाशमान शोभावाले सात खण्डके प्रासादमें श्री पार्श्वनाथकी मणि-निर्मित प्रतिमा है ||४१७|| उस प्रतिमाकी महिमाको सुनकर लोभसे सम्पन्न सुवीर इस प्रकार बोला- - क्या उस कान्तियुक्त प्रतिमाको लानेके लिए किसीकी सामर्थ्य है || ४१८|| तब दर्पके भारसे भरा हुआ है मुख जिसका ऐसा स्वर्प नामका चोर अपनी शक्तिको प्रकट करता हुआ शत्रुओंको जीतनेवाले सुवीरसे हर्षित होकर इस प्रकार बोला ||४१९|| हे प्रभो, मैं शत्रु-चक्रके जीतनेवाले शक्रके शिरपर स्थित मणि जड़ित मुकुटको भी क्षणभरमें ला सकता हूँ ||४२०|| तब सुवीर ने कहा- अच्छा, तो जाओ और अपने कर्तव्यको सिद्ध करो । मार्ग तेरा कल्याणकारी हो । इस प्रकारसे अपने स्वामी आदेशको पाकरके वह सूपंक चोर नगरसे निकला ॥४२१|| तब वह शठ चोर कपटसे क्षुल्लकका • वेष धारण करके दुश्चरित्र से कलङ्कित हो सर्वत्र भ्रमण करने लगा ||४२२||
उस मायाचारी चोरने ब्रह्मचारीके वेषसे तपश्चरण करते हुए शरीरको अत्यन्त सुखाकर
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