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श्रावकाचार-सारोबार उक्तं च- कुणिर्वरं वरं पङ्गः शरीरी च वरं पुमान् ।
अपि सर्वाङ्गसम्पूर्णो न तु हिंसापरायणः ॥१३९ अहो धनलवाद्ययं हिंसाशास्त्रोपदेशकैः । कुबुधैः क्षिप्यते क्षिप्रं जनोऽयं नरकावनौ ॥१४० यदाहुः- यज्ञार्थ पशवः सृष्टाः ब्रह्मणा च स्वयम्भुवा।
यज्ञोऽस्य भूत्यै सत्वस्य तस्माद्यज्ञे वधोऽवधः ॥१४१ या हिंसा-वासितावश्यं तया बुद्धया तु किं फलम् । तेन स्वर्णेन कि यत्स्यात्कर्णच्छेदनहेतवे ॥१४२
गत्वा तीर्थेषु पृथ्वीमणिकनककनत्कन्यकादिप्रदानं तन्वन्त्वज्ञानपडोत्करभिदुरमरं शास्त्रवाधि तरन्तु । कुर्वन्तुग्रं तपस्त्रिजगदभिमतं पालयन्त्वत्र शीलं
प्राणित्राणप्रवीणा यदि न खलु तदा देहिनोऽमुक्तिभाजः॥१४३ येन येन प्रजायेत प्राणिनां भूयसी व्यथा । तत्तन्निवारयेत्साधुः परलोकाभिलाषुकः ॥१४४
दयामृतेन व्रतमेकमप्यलं व्यपोहितुं कर्मकलकालिकाम् ।
विना दिनाधीशरचं महोज्ज्वलं निहन्तुमृक्षं क्षणदा किमु क्षमम् ॥१४५ जिनध्यानं ज्ञानं व्यसनहरणं पूज्यचरणे प्रणोता पूजा वा करणशमनं कामदमनम् । तपश्चीणं स्वर्णादिकमपि वितीणं यदि दया न चित्ते नृत्यं वा तमसि विफलं याति निखिलम् ॥१४६
और भी कहा है-कोढ़ से गलित हाथवाला मनुष्य होना श्रेष्ठ है और पंगु (लंगड़ा) मनुष्य होना अच्छा है। किन्तु हिंसा करने में तत्पर रहनेवाला सर्वाङ्ग सम्पन्न पुरुष होना अच्छा नहीं है ॥१३९॥
___ अहो आश्चर्यको बात है कि अल्प धनादिकी प्राप्तिके लिए हिंसा करनेवाले शास्त्रोंके उपदेशक कुपंडितों द्वारा यह जन-समुदाय नरकको भूमिमें शीघ्र फेंक दिया जाता है ॥१४०॥
। जैसा कि ये कुपंडित लोग कहते हैं-स्वयम्भू ब्रह्माने यज्ञके लिए ही पशु रचे हैं। यज्ञ इस प्राणीकी विभूतिके लिए होता है, इसलिए यज्ञमें किया गया जीव-वध जीवघात नहीं है ।।१४१॥
___ जो बुद्धि हिंसासे वासित है, अवश्य हो उस बुद्धिसे क्या फल (लाभ) है ? उस सुवर्णसे क्या लाभ-जो कानोंके छेदनका कारण हो ॥१४२।। तीर्थों में जाकर भूमि, मणि, सुवर्ण, सुन्दर कन्या आदिका चाहे दान करें, अज्ञानरूपी कीचड़से भरे हुए शास्त्र-समुद्रको चाहे पार कर लें, चाहे घोर उग्र तपश्चरण करें, और चाहे त्रिजगत् में उत्तम माने जाने वाले शीलका पालन करें, किन्तु यदि ये लोग प्राणियोंकी रक्षामें प्रवीण नहीं हैं; अर्थात् जीवोंकी रक्षा नहीं करते हैं, तब वे मनुष्य मुक्तिके भागी नहीं हो सकते हैं ॥१३॥ जिन जिन निमित्तोंसे प्राणियोंको भारी व्यथा होती हो, परलोकके अभिलाषी साधु पुरुषको उन उन निमित्तोंका निवारण करना चाहिए ॥१४४|| दयारूपी अमृतके साथ पालन किया गया एक भी व्रत कर्मरूपो कलंककी कालिमाको दूर करनेके लिए समर्थ है। महान उज्ज्वल दिवाकर-सूर्यके बिना नक्षत्र क्या रात्रिके अन्धकारको विनाश करने के लिए समर्थ है ? कभी नहीं ॥१४५।। यदि हृदयमें दया नहीं है तो जिनदेवका ध्यान करना, व्यसनोंका हरण करने वाला ज्ञान पाना, पूज्य पुरुषोंके चरणोंकी खूब पूजा करना, इन्द्रियोंका शमन करना, कामका दमन करना, तपश्चरण करना और सुवर्णादिका दान करना ये सर्व कार्य इस प्रकारसे निष्फल हैं, जिस प्रकारसे कि अन्धकारमें नृत्य करना व्यर्थ होता है ॥१४६।। एक ही मच्छकी पांच
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