Book Title: Sharavkachar Sangraha Part 3
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 388
________________ भावकाचार-सारोबार आस्तां केलिपरीरम्भविलासपरिभाषणम् । स्त्रीणां स्मरणमप्येवं ध्रुवं स्यावापदामये ॥२३६ वामभ्रवो ध्र वं पुत्रं पितरं भ्रातरं पतिम् । बारोपयन्ति सन्देहतुलायां दुष्टचेष्टिताः ॥२३७ उक्तंचमनस्यन्यद्वचस्यन्यक्रियायामन्यदेव हि । यासां साधारणं स्त्रीणां ताः कवं सुखहेतवे ॥२३८ बापदामास्पदं मूलं कलेः श्वभ्रस्य पद्धतिः । शोकस्य जन्मभू रामा कामं त्याज्या विचक्षणः ॥२३९ दुभंगत्वं दरिद्रत्वं तिर्यक्त्वं जननिन्यताम् । लभन्तेऽन्यनितम्बिन्यवलम्बनविलम्बिताः ॥२४० पराङ्मुखत्वं परकामिनीषु पञ्चेषुदग्या बपि ये विदग्धाः । वितन्वते स्वर्गपुराधिपधोस्तेषां भवन्तो खलु केन वार्या ॥२४१ परपरिणयनमनङ्गकोडा तीव्रस्मराग्रहोऽत्याक्षाः । अपरिगृहीतेतरयोरित्वरिकायां गतिः पञ्च ॥२४२ परिग्रहनिवृत्तिव्रतमाहधनधान्यादिग्रन्थं परिमाय ततोऽधिके । यस्त्रिधा निःस्पृहत्वं तत्स्यादपरिग्रहवतम् ॥२४३ श्वभ्रपातमसन्तोषमारम्भं सत्सुखापहम् । नात्वा सङ्गफलं कुर्यात्परिग्रहनिवारणम् ॥२४४ परिग्रहस्फुरद्धारभारिता भवसागरे। निमज्जन्ति न सन्देहः पोतवत्प्राणिनोऽचिरात् ॥२४५ परिग्रहगुरुत्वेन भावितो भविनां गणः। रसातलं समध्यास्ते यत्तदत्र किमद्धतम् ॥२४६ परिग्रहप्रहास्ते गुणो नाणुसमा क्वचित् । दूषणानि तु शेलेन्द्रमूलस्थूलानि सर्वतः ॥२४७ मनुष्य सुखी नहीं हो सकता ॥२३५।। स्त्रियोंके साथ कामकेलि, आलिंगन, विलास और संभाषण तो दूर रहे, उनका स्मरण भी निश्चयसे आपदाकी प्राप्तिके लिए होता है ।।२३६॥ दुष्टचेष्टावाली ये स्त्रियां निश्चयसे पुत्र, पिता, भाई और पतिको भी सन्देहकी तुलापर आरोपित कर देती हैं। अर्थात् सभीको सन्देहकी दृष्टिसे देखती हैं ॥२३७॥ ____ कहा भी है-जिन स्त्रियोंका मनमें कुछ अन्य होना, वचनमें कुछ अन्य होना और क्रियामें कुछ और होना ये साधारण कार्य हैं, वे सुखके लिए कैसे हो सकती हैं ।।२३८॥ जो यापदाओंकी स्थान है, पापकी मूल है, नरकको पद्धति है और शोककी जन्मभूमि है ऐसी स्त्री विचक्षण पुरुषोंको भले प्रकारसे छोड़नेके योग्य है ।।२३९॥ जो पुरुष अन्य स्त्रियोंके आलम्बनसे विडम्बित हैं, वे परभवमें दौर्भाग्य, दारिद्रय, तियंचपना और लोक-निन्द्यताको प्राप्त होते हैं ॥२४०॥ कामबाणोंसे दग्ध होते हुए भी जो बुद्धिमान् लोग पर-कामिनियोंमें पराङ्मुखता रखते हैं, उनके स्वर्गपुरीके स्वामित्वको प्राप्त होती हुई लक्ष्मी निश्चयसे किसके द्वारा रोकी जा सकती है ? किसीके द्वारा भी नहीं रोकी जा सकती है ॥२४१।। परविवाहकरण, अनंगक्रीड़ा, तीव्रकामाभिनिवेश, अपरिगृहीत इत्वरिकागमन और परिगृहोत इत्वरिकागमन ये पांच ब्रह्मचर्याणुव्रतके अतीचार हैं ॥२४२॥ अब परिग्रहनिवृत्तिव्रतको कहते हैं-धन-धान्यादि दशप्रकारके परिग्रहका परिमाण करके उससे अधिकमें जो मन वचन कायसे निःस्पृहता रखना सो अपरिग्रहव्रत है ।।२४३॥ यह परिग्रह नरकमें पतन करनेवाला है, असन्तोष-कारक है, जीव-हंसाका कारण है और उत्तम सुखका अपहारक है. ऐसा परिग्रहका फल जानकर परिग्रहका निवारण करना चाहिए ॥२४॥ बिस प्रकार अधिक भारसे पोत (जहाज) समद्रमें डूबता है, उसी प्रकार उत्तरोत्तर स्फरायमान परिग्रहके भारसे भरे हुए प्राणी इस भव-सागरमें अविलम्ब डूबते हैं ॥२४५॥ परिग्रहकी गुरुतासे भावित प्राणियोंका समूह यदि रसातलको प्राप्त होता है तो इसमें क्या अद्भुत बात है ।।२४६|| परिग्रह रूपी ग्रहसे ग्रसित मनुष्यमें गुण तो अणुके समान भी कहीं नहीं होता, प्रत्युत सर्व बोरसे शेल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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