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भावकाचार-संग्रह
उत्तुंगसौधमारूढो मन्त्रिणोऽय परिवृढः । पप्रच्छ स्वच्छवस्त्रोऽयं जनः क्वैति सचन्दनः ॥५३७ विहिताडम्बरा देव समायाता दिगम्बराः । तान्नन्तुमयमत्रत्यो लोको याति कुतूहली ॥५३८ वयं तत्रैव गच्छाम उदस्थादिति भूपतिः । ततो निषेधयामासुस्ते चत्वारोऽपि मन्त्रिणः ॥५३९ वेदमार्गविदां नृणां चक्षुषोरान्ध्यमुत्तमम् । ननु श्रुतिविमुक्तानां क्वचिद् वक्त्रावलोकनम् ॥५४० इत्यं राजा निषिद्धोऽपि जगाम यतिसन्निधौ। .... ..... .... .... ... ... ... ... ... ... ॥५४१ ... ... .... .... .... ........ .... .... .... ... ... ... ... .... निषिद्धो गुरुणा मुनिः ॥५४२ स्त्यानध्यानधनाधीनमानसा मुनिसत्तमाः । तिष्ठन्तीति धराधीशो व्याघुटय चलितो गृहम् ॥५४३ व्यक्तं वक्तुमपि प्रायो नामी वृषभरूपिणः । जानन्तीति हसं कृत्वा साकं भूपेन तेऽप्यगुः ॥५४४ चयाँ कृत्वातिसौन्दर्यसागरं श्रुतसागरम् । मार्गे सन्मुखमायान्तं दृष्ट्वेति जहसुद्विजाः ॥५४५ जडत्वाम्भोनिधौ मग्नो नग्नः सोद्विग्नमानसः । वादैरुच्चाटनीयोऽयं बलीवर्दसमाकृतिः ।।५४६ ततो वादोद्यतः सोऽपि बभूव श्रुतसागरः । तेजस्विनः कृतामन्यैः सहन्ते नापमानताम् ॥५४७ नृपाध्यक्ष कुपक्षकप्रवणाः श्रमणेन ते । अनेकान्तमयैर्वाजिताः स्याद्वादवादिना ॥५४८ ततो गत्वा गुरोरने तद्-वृत्तान्तमचीकथत् । हतो हन्त स्वहस्तेन संघः सोऽपीति चावदत् ।।५४९ वावस्थाने निशि ध्यानं दत्से शुद्धिस्तदा तव । संघस्य जीवितव्यं स्यादन्यथा तु परिक्षतिः ॥५५० रोक दिया ॥५३६॥ उस समय ऊँचे राजमहलके ऊपर बैठे हए राजाने मंत्रियोंसे पूछा कि स्वच्छ वस्त्र पहिने हए और चन्दनादि द्रव्य लिये हुए ये लोग कहाँ जा रहे हैं ।।५३७।। तब उन मंत्रियोने कहा-हे देव, आडम्बर करनेवाले दिगम्बर साधु यहाँ आये हैं, उनकी वन्दना करनेके लिए ये कुतूहली लोग वहाँ जा रहे हैं ॥५३८।। राजाने कहा-हम भी वहीं चलते हैं। तब उन चारों ही मंत्रियोंने निषेध करते हुए कहा-वेदमार्गके जाननेवाले मनुष्योंके नेत्रोंका अन्धा होना उत्तम है किन्तु वेदज्ञान-रहित पुरुषोंके मुखोंका देखना कभी अच्छा नहीं है ॥५३९-५४०।। इस प्रकार मंत्रियोंके द्वारा रोके जानेपर भी राजा मुनियोंके समीप गया। (सभी मुनियोंकी वन्दना करनेपर भी किसी साधुने राजाको आशीर्वादात्मक एक भी वचन नहीं कहा) क्योंकि सभी मुनिजन गुरुके द्वारा बोलनेसे रोक दिये गये थे ॥५४१-५४२॥ 'ये सब श्रेष्ठ मुनिजन उत्कृष्ट वृद्धिंगत ध्यानरूप धनमें संलग्न चित्त विराजमान हैं' ऐसा विचार करके राजा लौटकर अपने घरको चला ॥५४३॥ तब वे मंत्री भी 'ये बैल-सदश रूपके धारक प्रायः व्यक्तरूपसे बोलना भी नहीं जानते हैं। इस प्रकार हँसी करके राजाके साथ चल पड़े ॥५४४॥ अत्यन्त सौन्दर्यके सागर श्रुतसागर मुनिको चर्या करके मार्गमें सन्मुख आते हुए देखकर वे ब्राह्मण मंत्री हँसी करते हुए बोले-जड़ता-(मूर्खता) रूप समुद्र में निमग्न, उद्विग्न चित्त, बैलके समान आकृतिवाला यह नग्न साधु वादके द्वारा उच्चाटन करनेके योग्य है ॥५४५-५४६।। तब (मंत्रियोंका यह कथन सुनकर) वे श्रुतसागर मुनि भी उनके साथ वाद करनेके लिए उद्यत हो गये। तेजस्वी पुरुष अन्य पुरुषोंके द्वारा किये गये अपमानको सहन नहीं करते हैं १५४७॥ राजाको अध्यक्ष बना करके उनका वाद प्रारम्भ हुआ और स्याहादवादी उन मुनिराजने अनेकान्तमय वचन-युक्तियोंसे कुपक्षमें एकमात्र प्रवीण उन मंत्रियोंको दादमें जीत लिया ॥५४८॥
। तत्पश्चात उन मुनिराजने गुरुके आगे जाकर यह सब वृत्तान्त कहा । तब गुरुने कहाबड़े दुःखकी बात है कि तुमने अपने हाथसे इस संघका विघात कर दिया ।।५४९।। जब तुम वादस्थान पर जा करके ध्यान धारण करोगे, तब तुम्हारी शुद्धि होगी और संघका जीवन रहेगा।
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