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श्रावकाचार-संग्रह
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ततो विष्णुकुमारोऽसौ दुष्करं सुतपस्तपन् । निधिबंभूव लब्धीनां कलानामिव चन्द्रमाः ॥५६४ नव राज्योल्लसल्लक्ष्मीलीलागारं मनोहरम् । आगत्य पद्मभूपालं मन्त्रिणस्ते सिषेविरे ॥५६५ मन्त्रिणो देशकालादिविचारविधिकोविदान् । विज्ञाय स्थापयामास योग्ये मन्त्रिपर्वे नृपः ॥५६६ अन्यदा क्षीणमालोक्य बलिर्भूपमवोचत । दौर्बल्यकारणं देव किमेतत् प्रतिपाद्यताम् ॥५६७ दुर्गे कुम्भपुराख्येऽस्मिन् बली सिंहबलो वसन् । मद्देशोपद्रवेनालं मां दुनोति दुरासदः ॥५६८ श्रुत्वेति पार्थिवादेशाद्गत्वा दुर्गं बलाद्बलिः । भङ्क्त्वा सिंहबलं बढ़वा श्रीपद्माय व्यशिक्षणत् ॥५६९ प्रहृष्टः स प्रभुः प्राह गृहाणेष्टं वरं बले । याचे यवा तदा देव दीयतामिति सोऽववत् ॥५७० धर्माम्बुसिचनैर्भव्यशस्यौघानथ वर्धयन् । ससंघोऽकम्पनाचार्यस्तस्थौ नागपुरान्तिके ॥५७१ श्रमणागममाकर्ण्य मन्त्रिणो भयकातराः । तान्निराकरणोपायचिन्तामातेनिरे भृशम् ॥५७२ . ततोऽब्रवीद्बलिमंत्री स्मृत्वा पूर्ववरं विभो । दीयतामद्य मे राज्यं प्राज्यं सप्त दिनावधिम् ॥५७३ अदत्त मन्त्रिणे राज्यं मुदा भूप्रमदापतिः । विस्मरन्ति न कालेऽपि प्रतिपन्नं हि सज्जनाः ॥५७४ अन्तः पुरे नृपालोऽपि प्रविश्यादृश्यवान् स्थितः । पापकेलिर्ब लिभिक्षुपोडायै समचेष्टत ॥५७५ यतीनम्यन्तरीकृत्य बाह्ये वृत्तिमकारयत् । ताणं च मण्डपं कृत्वा चण्डक र्मोद्यतो बलिः ॥५७६ करके दीक्षित हो गया || ५६३|| तत्पश्चात् वे विष्णुकुमार मुनिराज दुष्कर तपको तपते हुए लब्धियों (ऋद्धियों) के निधान हो गये। जैसे चन्द्रमा वृद्धिगत होता हुआ समस्त कलाओंका निधान हो जाता है ||५६४ ||
इधर जब यह मनोहर पद्मराजा नवीन राज्यकी प्राप्तिसे उल्लासको प्राप्त राज्य लक्ष्मीकी लीलाका आगार हो रहा था, तभी वे निकाले गये चारों मंत्री आकरके इसकी सेवा करने लगे ||५६५।। देश-काल आदिकी विचार-विधिमें कुशल इन मंत्रियोंको जानकर राजा पद्मने योग्य मंत्रिपदपर उन्हें स्थापित कर दिया || ५६६ || इसके पश्चात् किसी समय राजाको दुर्बल होता हुआ देख कर बलि मंत्रीने पूछा - हे देव, आपकी दुर्बलताका क्या कारण है ? मुझसे कहिये ॥५६७॥ राजाने कहा – कुम्भपुर नामके इस अमुक दुर्ग में सिंहबल नामका एक बली राजा रहता है। वह दुष्ट मेरे देशमें भारी उपद्रव करके मुझे दुःखी कर रहा है ॥ ५६८ ॥ यह सुनकर राजाके आदेशसे बलिने जाकर अपने प्रचण्ड बलसे दुर्गको भग्न कर और सिंहबलको बाँधकर श्री पद्मराजाको सौंप दिया ||५६९|| इससे प्रसन्न होकर राजाने कहा - हे बलिमंत्रिन्, में तुमपर प्रसन्न हूँ, तुम अभीष्ट वरको माँगो । तब उस बलिने कहा- हे देव, (वरको सुरक्षित रखिये) आगे जब मैं मांगू, तब मुझे देवें ||५७०||
अथानन्तर भव्यरूप धान्योंके समूहोंको धर्मरूप जलसे सिंचन करके उसे संवर्धन करते हुए श्री अकम्पनाचार्य हस्तिनापुरके समीप संघ-सहित आकरके विराजमान हुए ।। ५७१ ॥ जैन श्रमणोंका आगमन सुनकर भयसे डरते हुए वे चारों मंत्रो शीघ्र उसके निराकरणका उपाय चिन्तवन करने लगे ||५७२|| तब बलिमंत्री पूर्व में राजाके द्वारा दिये गये वरका स्मरण कर राजाके पास जाकर बोला- हे प्रभो, आज सात दिनकी अवधिवाला अपना विशाल राज्य मुझे दीजिये ||५७३|| तब राजाने हर्षपूर्वक उसे सात दिनके लिए राज्य दे दिया । सज्जन पुरुष स्वीकृत बातको समय बीत जानेपर भी विस्मरण नहीं करते हैं || ५७४ || तत्पश्चात् राजा अन्तः पुरमें जाकर अदृश्य रूपसे स्थित हो गया । और वह पाप क्रीड़ा करनेवाला बलि मंत्री साधुओंको पीड़ा देनेके लिए चेष्टा करने लगा ||५७५ | उस बलिने मुनिजनोंको भीतर करके बाहिरसे बाढ़ लगवा दी और
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