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श्रावकाचार - सारोद्धार
उक्तं च---
रसजानां च बहूनां जीवानां योनिरिष्यते मद्यम् । मद्यं भजतां तेषां हिंसा सञ्जायतेऽवश्यम् ॥१७ निष्पद्यन्ते विपद्यन्ते देहिनो मद्यसम्भवाः । बिन्दौ बिन्दौ सदानन्ता मद्यरूपरसावहाः ॥१८ मद्यबिन्दुलवोत्पन्नाः प्राणिनः सञ्चरन्ति चेत् । पूरयेयुर्न सन्देहः समस्तमपि विष्टपम् ॥१९ (उक्तं च-)
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अभिमानभयजुगुप्साहास्थारतिशोककामकोपाद्या: । हिंसायाः पर्यायाः सर्वेऽपि च सरकसन्निहिताः ॥ २० मनोमोहस्य हेतुत्वान्नदानत्वाद्भवापदाम् । मद्यं सद्भिः सदा हेयमिहामुत्र च दोषकृत् ॥२१ चिखादिति हि मांसमशेषप्राणिघात भवभवमुद्धतबुद्धिः ।
मूलतः किमु धर्ममयं स छेत्तुमिच्छति जडोऽमरवृक्षम् ॥ २२ खादन्नभक्ष्यं पिशितं दयां यश्चिकीर्षति क्षोणविवेकबुद्धिः ।
स प्रस्तरे वाञ्छति मोदवाञ्छो राजीविनीं रोपयितुं विचित्राम् ॥२३
हन्ता दाता च संस्कर्ताऽनुमन्ता भक्षकस्तथा । क्रेता पलस्य विक्रेता यः स दुर्गतिभाजनम् ॥२४ विना विघातं न शरीरभाजामुत्पद्यते मांसमनर्थमूलम् । तस्माद्दयालीढधियां न युक्तं प्राणात्ययेऽप्यत्र पलाशनं तत् ॥२५
उक्तं च
नाकृत्वा प्राणिनां हिंसा मांसमुत्पद्यते क्वचित् । न च प्राणिवधात् स्वर्गस्तस्मान्मासं विवर्जयेत् ॥२६
कहा भी है- मद्य बहुतसे रसज जीवोंकी योनि कहा जाता है । अतः मद्यका सेवन करनेवाले मनुष्योंके हिंसा अवश्य ही होती है || १७|| मद्य में उत्पन्न होनेवाले रसजजीव सदा ही उत्पन्न होते और मरते रहते हैं। मद्यकी एक-एक बिन्दुमें मद्य के रूप-रसके धारक अनन्तजीव होते है || १८|| मद्यकी एक बिन्दुमें उत्पन्न होनेवाले जीव यदि संचार करें तो समस्त ही त्रैलोक्यरूप संसार पूरित कर देंगे, इसमें सन्देश नहीं है ॥ १९ ॥
कहा भी है- अभिमान, भय, जुगुप्सा, हास्य, अरति, शोक, काम और कोप ये सभी हिंसा के पर्यायवाची नाम मद्यमें सन्निहित हैं ||२०||
मन मोहका कारण होनेसे और सांसारिक आपदाओंका कारण होनेसे, तथा इस लोक और परलोकमें दोष-कारक होनेसे सज्जनोंको इस मद्यका सदा ही त्याग करना चाहिए ||२१||
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सभी प्राणियोंके घातसे उत्पन्न होनेवाले मांसको जो उद्धतबुद्धि मनुष्य खाना चाहता है, वह जड़ पुरुष धर्मरूपी अमर वृक्षको मूलसे काटने की इच्छा करता है || २२|| अभक्ष्य मांसको खाता हुआ नष्ट विवेक बुद्धिवाला जो पुरुष दया करनेकी इच्छा करता है वह मानों आनन्द पानेकी इच्छासे पत्थरपर नाना प्रकारको कमलिनीको आरोपण करनेकी वांछा करता है ||२३|| जो जीवका घात करता है, मांस परोसता या देता है, पकाता है, मांस खानेकी अनुमोदना करता है, स्वयं खाता है, मांसको खरीदता है और बेचता है, वह दुर्गतिका पात्र होता है || २४|| प्राणियोंके घात किये बिना मांस उत्पन्न नहीं होता है, यह अनर्थका मूल कारण है । इसलिए दया- युक्त बुद्धिवाले पुरुषोंको प्राणोंका विनाश होनेपर भी मांसका खाना योग्य नहीं है ||२५||
कहा भी है- प्राणियोंकी हिंसा किये विना मांस कहींपर भी कभी उत्पन्न नहीं होता है और प्राणि-वधसे स्वर्गं प्राप्त नहीं होता है, इसलिए मांसका त्याग करे ||२६||
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