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श्रावकाचार-सारोद्धार तत्तन्नास्तिकवादने दुरदुराचारप्रवीणाशयैः संभिन्नादिकुमन्त्रिभिस्त्रिभिरमु सञ्चाल्यमानं बलात् । भूपालं सचलं महाबलमलङ्कार कुलस्य स्वयं
बुद्धः शुद्धविबोधबन्धुरमतिः सत्संयमेऽतिष्ठिपत् ॥४४७ उक्तंच-सुवतीसङ्गमासक्तं पुष्पडालं तपोधनम् । वारिषेणः कृतत्राणः स्थापयामास संयमे me अस्य कथा- देशेऽस्ति मगधाख्येऽस्मिन् पुरं राजगृहं परम् ।
जेतारिश्रेणिकस्तत्र श्रेणिको धरणीपतिः ॥४४९ वारिषेणः सुतस्तस्य चेलना कुक्षिमौक्तिकम् । स भवत्सत्त्वसन्तानदयाधीनकमानसः ॥४५० एकदाऽसौ चतुर्दश्या रात्रौ भूरिभयप्रदे । श्मशाने कृतवान् कायोत्सर्ग सन्मार्गसक्तधीः ॥४५१ तस्मिन्नेव दिने धन्ये कानने गतया तया। दृष्टो मगधसुन्धर्या हारः श्रीकीत्तिसद्गले ॥४५२ मण्डनेन विना तेन जीवितव्यं वथा मम । इति सञ्चिन्त्य शय्यायां निपत्य गणिका स्थिता ॥४५३ निशायामागतेनाथ विद्युच्चोरेण लञ्जिका । दृष्टा दुःखहिमवातपातम्लानाननाम्बुजा ॥४५४ जगाद तस्करः कान्ते दुःखितेवाद्य दृश्यसे । मानभङ्गः कृतः क्वापि किमन्यायतया मया ॥४५५ सापि स्नेहरसोद्गारप्रसारितविलोचना । विद्युच्चौरमिति प्रोचे वेश्या मगधसुन्दरी ॥४५६ श्रीकोतिष्ठिनो नूनं मण्डनं चण्डतेजसम् । दत्से हारं समानीय तदा जीवामि नान्यथा ॥४५७ यद्यानयसि तं स्फारतेजसाक्रान्तदिग्मुखम् । तदा त्वमपि मे भर्ता तायकोना त्वहं प्रिया ।।४५८
नास्तिक मतोंके कथन करनेपर अत्यन्त दुराचारमें प्रवीण अभिप्रायवाले संभिन्नमति आदि तीनों कुमंत्रियोंके द्वारा बलात् चलायमान किये गये कुलके अलङ्कारभूत महाबल राजाको शुद्धबोधसे सुन्दर बुद्धिवाले स्वयंबुद्ध मंत्रीने उत्तम संयममें प्रतिष्ठापित किया था। (इसमें भ० ऋषभदेवके महाबलके भवकी ओर संकेत किया गया है)॥४४७।।
__ कहा भी है-अपनी स्त्री में आसक्त चित्त पुष्पडाल साधुकी वारिषेणने रक्षा करके उसे संयममें स्थापित किया ॥४४८॥
इसकी कथा इस प्रकार है-इसी मगध नामक देशमें राजगृह नामका एक सुन्दर नगर है। वहाँपर शत्रुओंकी श्रेणियोंको जीतनेवाला श्रेणिकराजा राज्य करता था। उसकी चेलना रानीकी कुक्षिका मौक्तिक स्वरूप वारिषेण नामका पुत्र था । वह सभी प्राणियोंकी सन्तान पर दयाल हृदय था ।।४४९-४५०॥ एक बार सन्मार्गमें निमग्न बुद्धि उस वारिषेणने चतुर्दशीकी रात्रिमें भारी मयंकर श्मशानमें जाकर कायोत्सर्ग स्वीकार करके ध्यान लगाया ॥४५१।। उस ही दिन सुन्दर वनमें गई हुई मगधसुन्दरी वेश्याने श्रीकोतिके गलेमें एक सुन्दर हार देखा ॥४५२॥ उस हारके पहिने विना मेरा जीवित रहता वृथा है ऐसा विचारकर वह वेश्या शय्या पर जाकर पड़ गई ॥४५३।। रात्रिके समय आये हुए विद्युच्चोरने दुःखरूप हिम-समूहके पातसे म्लानमुख कमलवाली उस वेश्याको देखा ॥४५४।। तब वह चोर बोला-हे प्रिये, आज दुःखी-सी दिखती हो। क्या मैंने अन्यायरूपसे तुम्हारा कहीं कुछ मान-भंग किया है ॥४५५॥ तब स्नेह रसके उद्गारसे युक्त नेत्रोंको विस्तृत करती हुई वह मगधसुन्दरी वेश्या भी विद्युच्चोरसे इस प्रकार बोली-श्रीकीति सेठके गलेके मण्डनभूत प्रचण्ड तेजवाले हारको लाकरके यदि दोगे, तो में जीवित रह सकूँगी, अन्यथा नहीं ॥४५६-४५७।। यदि तुम उस स्फुरायमान तेजसे दिशाओंके मुखोंको आक्रान्त करनेवाले हारको
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