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श्रावकाचार-सारोबार ततो द्वादश वर्षाणि वारिषेणस्तपोनिधिः । तस्य निर्वाहमापातुं तीर्थयात्रामवीकरत् ॥४९९ अन्यदा वर्धमानस्य जिनस्य समवसृतिम् । जग्मिवान् गुरुणा चारगुणोघगुरुणा समम् ॥५०० क्वचित्तत्र सुरेन्द्रस्य गन्धर्वेर्गसम्भृतः । गीयमानमिदं पद्यमोषोन्नौतनो मुनिः ॥५०१ मइलकुचेली दुम्माणी गाहें पवसियएण। कहं जीवेसइ धणियघर डझंती विरहेण ॥५०२ ततस्तच्छवणोद्भूतविरहानलशान्तये। बवाञ्छ स मुनिर्भार्यादर्शनाम्भसि मज्जनम् ॥५०३ गुरुर्ज्ञात्वा ततः शिष्यं कामानलकरालितम् । चचाल स्वपुरं तस्य स्थिरीकरणहेतवे ॥५०४ वारिषेणमथाऽऽयान्तं दृष्टवा राज्ञी विचक्षणा। हृदीति चिन्तयामास किमयं चलितो व्रतात् ॥५०५ वीतराग-सरागे द्वे आसने चेलना सती । अदत्त भूपतेः पत्नी परीक्षणकृते मुनेः ॥५०६ विष्टरे वीतरागेऽसौ निविष्टः शिष्टमानसः । सत्क्रियाचरणे किं वा क्वचिन्मुह्यन्ति साधवः ॥५०७ वाणीभिरमृतोद्गारलुण्टाकोभिर्मुनीश्वरः। मातरं पोषयामास व्यक्तभक्तिभरानताम् ॥५०८ मद्दारान् सद्गुणोदारान् सशृङ्गारान् समानय । आविष्टवानिति स्वस्य जननीं विनयाञ्चिताम्॥५०९ अङ्गचङ्गमनिळू तस्फीतदेवाङ्गनामवाः । प्रमदाः सम्मदोपेताः समानीतास्तया द्रुतम् ॥५१० कृत्वा नति ततस्तासु सुनिविष्टासु यथायथम् । उवाच वाचमित्युच्चैः गुरुः शिष्यं प्रमादिनम् ॥५११ राज्यं प्राज्यमिदं चैताः कामिनीर्गजगामिनीः । एतानि सदनान्युच्चैगुहाण मदनुज्ञया ॥५१२
तत्पश्चात् उन तपोनिधि वारिषणने उसे पुष्पडालके संयम-निर्वाहके लिए बारह वर्ष तक अपने साथ रखकर तीर्थयात्रा कराई ।।४९९॥ किसी समय वह सुन्दर गुण-समूहसे गौरवशाली अपने वारिषेण गुरुके साथ श्री वर्धमान जिनेन्द्रके समवशरणमें गया ॥५००। वहाँ कहींपर देवेन्द्रके गर्व-संभृत गन्धर्वोसे गाये जानेवाले इस पद्यको उस पुष्पडाल मुनिने सुना।।५०१॥
पतिके प्रदासमें जानेसे विरहानलसे जलती हुई मलिन वस्त्रवाली वह मानिनी नायिका धनीके घरमें कैसे जीवित रहेगी । अर्थात् जीवित नहीं रह सकेगी ॥५०२॥
इस पद्यको सुननेके पश्चात्, उससे उत्पन्न हुए विरहानलको शान्त करनेके लिए उस पुष्पडाल मनिने अपनी भार्याके दर्शनरूपी जलमें स्नान करनेकी इच्छा की ॥५०३।। तब वारिषेण गरु कामाग्निसे प्रज्वलित अपने पुष्पडाल शिष्यको जानकर उसके स्थिरीकरणके लिए अपने नगरको चले ॥५०४।। अपने घरकी ओर आते हुए वारिषेण मुनिको देखकर बुद्धिमती रानी चेलनाने अपने हृदयमें विचार किया कि क्या यह व्रतसे चलायमान हो गये हैं ॥५०५॥ तब राजाकी रानी उस चेलना सतीने उन मुनिकी परीक्षा करनेके लिए एक वीतराग और एक सराग ऐसे दो आसन बैठनेके लिए उन्हें दिये ॥५०६।। तब वे शिष्ट-मानस वारिषेण मुनिराज वीतराग आसनपर बैठ गये । ग्रन्थकार कहते हैं कि सच्चे साधु अपनी सत्-क्रियाओंके आचरण करने में क्या कभी कहीं पर मोहित होते हैं ? अर्थात् नहीं होते ॥५०७॥ तब अमृतके उद्गारको भी हरण करने वाली अपनी प्रियवाणीसे वारिषेण मुनीश्वरने प्रकट भक्तिभारसे अवनत अपनी मातासे कहा ।।५०८।। सद्-गुणोंसे उदार मेरी सभी स्त्रियोंको शृंगार-युक्त करके यहाँ लाओ । इस प्रकार विनयसे युक्त अपनी माताको आदेश दिया ।।५०९।। तब वह चेलना शरीरकी सौष्ठवतासे सुन्दर देवाङ्गनाओंके मदको चूर-चूर करनेवाली, हर्षसे युक्त उसकी सभी नवीन यौवन वाली बहओंको जल्दीसे ले आयी ॥५१०॥ तत्पश्चात् नमस्कार करके उनके यथाक्रमसे बैठ जानेपर वारिषेण गुरुने अपने प्रमादको प्राप्त पुष्पडाल शिष्यसे उच्चस्वरमें इस प्रकार वचन कहे-॥५११।। हे पुष्पडाल, इन गजगामिनी कामिनियोंको, इन विशाल उन्नत राजभवनोंको और इस विशाल राज्यको मेरी आज्ञासे तुम ग्रहण करो
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