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श्रावकाचार-सारोबार अन्यस्मिन् दिवसे सोऽथ पूर्वस्यां दिशि मायया। व्यूढपपासनावं चतुर्वक्त्रं मनोहरम् ॥३७२ यज्ञोपवीतसंयुक्तं धर्मतत्त्वोपदेशकम् । वन्दारत्रिवशाधीशवन्धमानपदाम्बुजम् ॥३७३ जगन्निर्माणसामग्रीकोविदं बुधवन्दितम् । वेद-ध्यनिसमाकीणंककुब्-चक्रं महोदयम् ॥३७४ ब्रह्मणो रूपमादाय ब्रह्मचारी खगेश्वरः । स्थितः सुरेवतीराज्ञी-परीक्षणकृतोखमः ॥३७५
चतुभिः कुलकम् । ब्रह्माऽऽगमनमाकर्ण्य कर्णाकणिकया नृपः । वरुणाख्यः समं पौरैः भक्तिब्रह्मतयाऽगमत् ॥३७६ नृपेण प्रेर्यमाणापि शुद्धसम्यक्त्वशालिनी। कोऽयं ब्रह्मा निगद्येति न गता रेवती सती ॥३७७ अन्येार्दक्षिणस्यां स दिशि विद्यामहेश्वरः । वैनतेयसमारूढं चतुर्भुजसमन्वितम् ॥३७८ शङ्खचक्रगदोपेतं जगद्-रक्षाविचक्षणम् । मायया वैष्णवं रूपं वर्शयामास भुल्लकः ॥३७९ पश्चिमायां दिशि स्फूर्जज्जटाजूटाद्यमस्तकम् । पार्वतीवदनालोकप्रमोदमदमेदुरम् ॥३८० बलोवदंसमारूढं नन्दिप्रभृतिसंयुतम् । रूपं माहेश्वरं लोके दर्शितं तेन मायया ॥३८१ उत्तरस्यां दिशि प्रौढप्रातिहार्यविराजितम् । समवसृतिमध्यस्थं गुणग्नामसमन्वितम् ॥ ३८२ सुरासुरनराधीशवन्द्यमानपदद्वयम् । प्रसृत्वरतमस्तोमध्वंसनैकदिवाकरम् ॥३८३ योजनव्यापिगम्भीरस्वरं भूरिविभावरम् । भक्तिप्रतमुनीशानसंस्तुतं जगदचितम् ॥३८४ अन्यस्मिन् वासरे जैनं रूपमेवमदीदृशत् । निरवद्यो लसद्विद्यापारीणोऽयमणुवती ॥३८५
इसके पश्चात् दूसरे दिन वह क्षुल्लक अपनी मायासे पद्मासनपर विराजमान, चार मुखवाले, मनोहर आकारवाले, यज्ञोपवीतसे संयुक्त, धर्मतत्त्वका उपदेश करनेवाले, वन्दना करते हुए देवेन्द्रोंसे वन्द्यमान चरण-कमलवाले, जगत्के निर्माण करनेवाली सामग्रीके विद्वान्, ज्ञानियोंसे वन्दित, वेद-ध्वनिसे सर्व दिक-चक्रको व्याप्त करनेवाले, महान् उदय स्वरूप ब्रह्माका रूप धारण करके रेवतीरानीकी परीक्षा करनेके लिए उद्यम कर पूर्व दिशामें अवस्थित हो गया ॥३७२-३७५।। कानोंकान फैलती हुई वार्तासे ब्रह्माका आगमन सुनकर वहांका वरुण नामका राजा पुरवासी लोगोंके साथ अतिभक्तिसे वहाँ गया ॥३७६।। किन्तु राजाके द्वारा प्रेरणा किये जानेपर भी वह शुद्ध सम्यक्त्वको धारण करनेवाली सती रेवतीरानी 'यह कौन सा ब्रह्मा है' ऐसा कहकर वहाँ नहीं गई ॥३७७॥
दूसरे दिन उस विद्यामहेश्वर क्षुल्लकने दक्षिण दिशामें गरुड़पर आरूढ़, चार भुजाओंसे संयुक्त, शंख, चक्र और गदाको धारण किये हुए, जगत्की रक्षा करने में कुशल, ऐसा विष्णुका रूप दिखाया ॥३७८-३७९।। (सभी लोग वन्दनाको गये, पर रेवतीरानी नहीं गई ।) तीसरे दिन उस क्षुल्लकने अपनी मायासे पश्चिम दिशामें स्फुरायमान जटाजूट आदिसे युक्त मस्तकवाले, पार्वतोके मुखको अवलोकन करनेसे उत्पन्न हुए प्रमोद-मदसे व्याप्त, वृषभपर समारूढ़ और नन्दि आदि गणोंसे संयुक्त ऐसे सहदेवके रूपको लोकमें दिखाया ॥३८०-३८१।। (सभी लोग वन्दनार्थ गये, पर रेवतीरानी नहीं गई।) चौथे दिन रूप-परावर्तकी विद्यामें पारंगत उस निर्दोष अणुव्रती क्षुल्लकने उत्तर दिशामें प्रौढ आठ प्रातिहार्योंसे विराजमान, समवशरणके मध्यमें स्थित, गुण-गणोंसे संयुक्त, सुर-असुर और मनुष्योंके स्वामियोंसे वन्द्यमान चरण-युगलवाले, फैलते हुए अन्धकार-पुंजको विध्वंस करनेमें अद्वितीय दिवाकर, एक योजन तक व्याप्त होनेवाली गंभीर वाणीके स्वर-धारक, भारी प्रभाके धारक, भक्तिसे विनम्र मुनिराजोंसे संस्तुत, जगत्-पूजित, ऐसा जिनेन्द्रदेवका रूप दिखाया ।।३८२-३८५।।
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