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श्रावकाचार-संग्रह
कुट्टिनी उवाच - अस्मिन्नसारे संसारे सारमिन्द्रियजं सुखम् । तद्वेश्यानां मते तन्वि सातिरेकं प्रवर्तते ॥ २६६ मनोऽभिलषितान् भोगानतः कुरु मदुक्तिभिः । शोकं रूप-परावर्तकारणं च परित्यज ॥ २६७ इति वेश्योदितैरेषा न च्युता शीलशैलतः । चलत्यचलमालेयं किं वा वातेः कदाचन २६८ ततः श्रीसिंहराजाय कुट्टिन्या सा समर्पता । हठाद् भोक्तुं समारब्धा तेन रात्रौ दुरात्मना ॥२६९ ततस्तद्ब्रह्म माहात्म्यात्क्षुभिता पुरदेवता । उपसर्गशतैरेनं पीडयामास पापिनम् ॥ २७० स्फीतभीतिर्गृहादेनां निरास्थन्निजकिङ्करैः । सापि पञ्चनमस्कारान् स्मरन्ती तस्थुषी क्वचित् ॥२७१ निविष्टां कुत्रचिद्देशे शोकशोषितमानसाम् । पद्मश्रीः क्षान्तिका बालामद्राक्षीद्दययाञ्चिता ॥ २७२ विज्ञाततच्चरित्रासौ कृत्वा शोकापनोदनम् । स्वान्तिके स्थापयामास कान्तिकान्तां कृशोदरीम् ॥ २७३ पुत्रीहरणसम्भूतशोकसन्तापशान्तये । अथ निगतंवानेष प्रियदत्तः स्ववासतः ॥ २७४ तीर्थ पूजोद्भवैः पुण्यैः स्वात्मानं स पवित्रयन् । अयोध्यां नगरीं प्राप्तो भूरिभूतिगरीयसीम् ॥२७५ श्रेष्ठिनो जिनदत्तस्य शालकस्य निशागमे । प्राविशत्सदनं साधुः स्वसेवकसमन्वितः ॥२७६ ससंभ्रममथोत्थाय कृत्वा प्राघूर्णकक्रियाम् । आसने जिनदत्तोऽसौ प्रियदत्तं न्यवीविशत् ॥ २७७ जिनदत्तेन तेनाशु पृष्ठः श्रेष्ठी विशिष्टधीः । किञ्चिद्गद्गदकण्ठोऽसौ सर्व वृत्तं न्यवेदयत् ॥२७८ ततः प्रातः कृतस्नानो जिनध्यानो दयाधनः । अगारात्स जिनागारमगान्मारसमाकृतिः ॥ २७९
वह अनन्तमती पुत्री कामसेना नामकी वेश्याको दे दी || २६५ || वेश्या बोली - इस असार संसार में इन्द्रिय-जनित सुख ही सार है, हे सुन्दरी, वह सुख वेश्याओंके मत में सर्वाधिक प्राप्त होता है ||२६६ || इसलिए मेरे कहनेसे तू मनोवांछित भोगोंको भोग और रूपके बिगाड़नेवाले इस शोकका परित्याग कर || २६७ || वेश्याके द्वारा ऐसा कहे जानेपर भी यह अनन्तमती अपने शीलरूपी शैल (पर्वत) से च्युत नहीं हुई । क्या कभी वायुके वेगोंसे अचल पर्वतोंकी पंक्ति चलायमान होती है । कभी नहीं ॥ २६८ ॥ तब उस वेश्याने उसे श्री सिहराजको सौंप दिया। उस पापीने रात्रि में हठात् उसे भोगनेका प्रयत्न प्रारम्भ किया || २६९|| तब उस अनन्तमतोके ब्रह्मचर्य के माहात्म्यसे क्षोभको प्राप्त हुई पुर-देवताने उस पापीको सैकड़ों उपसर्गों से पीड़ित किया || २७० || तब अत्यन्त भयभीत होकर उसने अपने नौकरोंके द्वारा इसे घर से निकाल दिया । वह अनन्तमती भी पंचनमस्कारमंत्रको स्मरण करती हुई कहीं पर जाकर बैठ गई || २७१|| तब किसी अज्ञात - निर्जन प्रदेशमें बैठी और शोक सन्तप्त-चित्तवाली इस बालाको दयासे भरपूर पद्मश्री नामकी आर्यिकाने देखा ॥२७२ || इसके सभी पूर्व वृत्तान्तको जानकर और उसका शोक दूरकर उस सुन्दर कान्तिवाली कृशोदरीको अपने समीप रख लिया ||२७३ ।।
इधर पुत्रीके हरे जानेके शोक सन्तप्त चित्तकी शान्ति के लिए यह प्रियदत्त सेठ भी अपने घरसे निकला और विभिन्न तीर्थों की पूजा करनेसे उत्पन्न हुए पुण्यसे अपनी आत्माको पवित्र करता हुआ भारी विभूतिसे गौरवशालिनी अयोध्या नगरीको प्राप्त हुआ || २७४ - २७५॥ वहाँ रात्रि समय वह साहू प्रियदत्त सेठ अपने साले जिनदत्तके घर अपने सेवकोंके साथ प्रविष्ट हुआ ||२७६|| अपने बहनोईको आया हुआ जानकर हर्षसे रोमांचित हुए उठकर पाहुनगति करके उस जिनदत्तने प्रियदत्तको आसन पर बैठाया || २७७ || जिनदत्तने विशिष्ट बुद्धिवाले अपने बहनोई सेठसे शीघ्र घरकी सब कुशल-क्षेम पूछी । तब उसने दुःखसे कुछ गद्गद कण्ठ होते हुए सर्ववृत्तांत कहा ||२७८|| तत्पश्चात् प्रातःकाल स्नानकर जिन भगवान्का ध्यान करता हुआ दयाका धनी और कामदेवके समान सुन्दर आकृतिवाला वह प्रियदत्त घरसे जिन मन्दिर गया || २७९ ॥
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