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श्रावकाचार-सारोद्वार
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तन्वेचित्यिति गेहेऽसौ निधाय वनितां निजाम् । खगो वेगात्समागत्य जहार श्रेष्ठिनः सुताम् ॥२५३ दृष्ट्वा सन्मुखमायान्तों स्वभार्या भयकातरः । विद्यया खाच्छनैरेनां खगेशो घृतवान् वने ॥ २५४ तात तातेति जल्पन्तों वाष्पाविलविलोचनाम् । भीमो भीमाह्वयो भिल्लपालोऽपश्यत्सविस्मयम् ॥ २५५ तल्लावण्यामिषग्रासलालसः स वनेचरः । तां रूपवल्लिकां बालामनैषोनिजपल्लिकाम् || २५६ मामिच्छातुच्छलावण्यवाधिवेले निजेच्छया । यथा हर्षात्करोमि त्वां सर्वराज्ञीशिरोमणिम् ॥ २५७ अनिच्छन्ती ततस्तेन पापिना शबरेशिना । बलेन भोक्त मारब्धा बाला ब्रह्मव्रताञ्चिता ॥ २५८ विघ्नैः परःशतैभिल्लं निवार्य वनदेवता । तस्या व्यधत्त साहाय्यं शीलात् किं वा न जायते ॥२५९ कुयायते समुद्रोऽपि प्रत्यूहोऽप्युत्सवायते । अरिमित्रायते नूनं सत्त्वानां शीलशालिनाम् ॥ २६० काचिदेवीति विज्ञाय पल्ल्यभ्यर्णनिवासिने । तामसौ सार्थवाहाय पुष्पनाम्नेऽसमर्पयत् ॥२६१ तद्रूपालोकनात्सार्थवाहः स्मरकरालितः । उवाच परया प्रीत्या कामिनों गजगामिनीम् ॥२६२ गृहाणाभरणान्येतान्यम्बराणि च भामिनि । सर्वदा तव दासोऽस्मि कटाक्षेण पुनीहि माम् ॥२६३ सा उवाच - प्रियवत्तः पिता यादृक् तादृक्त्वमपि मे पिता । अतः पापपरं वाक्यं मास्म वादीवणिक्पते ॥ २६४ अथायोध्यां समासाद्य नगरों स गरीयसीम् । कुटिन्यै कामसेनायै ददिवान् श्रेष्ठिनः सुताम् ॥२६५
युवती स्नेहवती रूपवती सती नहीं है, उसका इस संसारमें जीना वृथा है ।। २५१-२५२|| ऐसा विचारकर वह विद्याधरेश अपने साथ विमानमें बैठी हुई अपनी स्त्रीको घरपर छोड़कर वेगसे वापिस आया और सेठकी पुत्रीका अपहरण कर आकाशमार्ग से चल दिया || २५३ || इतने में सन्मुख आती हुई अपनी भार्याको देखकर भयभीत हो उस खगेशने विद्याके द्वारा इस अनन्तमतीको धीरेसे वनमें उतार दिया || २५४ ॥ तब हे तात, हे तात पुकारती-चिल्लाती रोती और आँसूसे व्याप्त नेत्रवाली इस अनन्तमतीको भीम नामक एक भयंकर भीलोंके राजाने आश्चर्यके साथ देखा || २५५ ॥ उसके लावण्यरूप आमिष (मांस) को ग्रास बनानेकी लालसा वाला वह भीलराज रूपवल्ली इस arorat अपनी पल्लीमें ले गया और उससे बोला- हे अनुपम सौन्दर्य सागरकी बेला, तू मुझे पतिरूपसे स्वीकार कर, जिससे कि हर्षित होकर मैं तुझे अपनी सब रानियों में शिरोमणि बना दूँ ।।२५६-२५७।। जब अनन्तमतीने उसे पतिरूपसे स्वीकार नहीं किया, तब उस पापी भिल्लराजने ब्रह्मचर्यव्रत से युक्त उस बालाको बलपूर्वक भोगनेका प्रयत्न प्रारम्भ किया || २५८||
तब उसके शीलके प्रभावसे वनदेवताने आकर सैकड़ों उपद्रव करके उस भीलका निवारण कर उस अनन्तमतीकी सहायता की, अर्थात् बचाया । सच है - शीलसे क्या नहीं हो सकता है । २५९ | शील-धारक प्राणियोंके लिए समुद्र छोटी नदी या नालीके समान आचरण करता है, विघ्न भी उत्सव बन जाते हैं और शत्रु भी मित्रके समान आचरण करने लगता है ॥ २६०॥ अनन्तमतीकी ऐसी दशा जानकर किसी देवीने उसे भील- पल्लीके समीप निवास करनेवाले पुष्पनामक सार्थवाहको सौंप दिया || २६१ | उसके रूप- अवलोकनसे काम पीड़ित होता हुआ वह सार्थवाह परम प्रीतिके साथ उस गजगामिनी कामिनी अनन्तमती से बोला- हे भामिनि, इन वस्त्रों और आभूषणोंको ग्रहण कर और अपने कटाक्ष-विक्षेपसे मुझे पवित्र कर, मैं तेरा दास हूँ ॥ २६२-२६३ | तब वह अनन्तमती बोली — जैसा प्रियदत्त मेरा पिता है, उसी प्रकार तुम भी मेरे पिता हो । अतः हे वणिक्-पते, ऐसे पाप-पूर्ण वचन मत कहो || २६४ || तब उस सार्थवाहने विशाल अयोध्या नगरी जाकर सेठकी
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