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श्रावकाचार-सारोद्धार
धर्मं धर्मं प्रजल्पन्ति जल्पकाः केचिदुद्धताः । न विदन्ति परं तस्य तत्त्वं सत्त्वहितङ्करम् ॥७५ त्वत्तोऽधिगन्तुमिच्छामि ततस्तलक्षणं गुरो । गुर्वादेशाद्यतः सर्वं प्रत्यक्षमिव लक्ष्यते ॥७६ भ्रान्तिनाशोऽत्र तो तावद्यावन्न त्वादृशः श्रुतम् । न हि सूर्यादृते दृष्टं नश्यन्नैशं तमः क्वचित् ॥७७ श्रुत्वेति दृक्प्रसादेन सम्मुखों भव्यसंसदम् । कुर्वन्नुर्वीपति भक्तिनतं यतिरवोचत ॥७८ धरत्यपारसंसारदुःखादुद्धृत्य यो नरान् । मोक्षेऽक्षयसुखे भूप तं धर्मं विद्धि तत्त्वतः ॥७९ यस्मादभ्युदयः पुंसां निश्रेयसफलाश्रयः । वदन्ति विदिताम्नायास्तं धर्मं धर्मसूरयः ॥ ८० सम्यग्दृग्बोधवृत्तानि विविक्तानि विमुक्तये । धर्मं सागारिणामाहुधर्मकर्मपरायणाः ॥८१ तत्र सम्यग्दर्शनस्वरूपं तावता -
देवे देवमतिर्धर्मे धर्मधीर्मलवजिता । या गुरौ गुरुता बुद्धिः सम्यक्त्वं तन्निगद्यते ॥८२ अदेवे देवताबुद्धिरधर्मे वत धर्मधीः । अगुरौ गुरुताबुद्धिस्तन्मिथ्यात्वं विपर्ययात् ॥८३ भूर्भुवः स्वस्त्रयोनाथपूजितो जितमन्मथः । रागद्वेषविनिमुक्तो देवोऽत्र स निगद्यते ॥८४ देवः स एव स ब्रह्मा स विष्णुः स महेश्वरः । बुद्धः स एव यो दोषैरष्टादशभिरुज्झितः ॥८५ क्षुत्पिपासा भयं द्वेषो रागो मोहो जरा रुजा । चिन्ता मृत्युर्मदः खेदो रतिः स्वेदश्व विस्मयः ॥ ८६ विषादो जननं निद्रा दोषा एते सुदुस्तराः । सन्ति यस्य न सोऽवश्यं देवस्त्रिभुवनेश्वरः ॥८७
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कहा - हे स्वामिन्, धर्मकी जिज्ञासावाले मुझे आप अपनी परम मधुर वाणीसे पवित्र कीजिए ॥७४॥ | इस संसार में कितने ही उद्धत जल्पाक (बहुत बोलनेवाले बावदूक) लोग 'धर्म-धर्म' शब्दको बोलते हैं, परन्तु वे धर्मके सर्व प्राणियोंके हितकारक तत्त्वको नहीं जानते हैं ॥ ७५ ॥ | इसलिए हे गुरुवर, मैं आपसे धर्मका लक्षण जानना चाहता हूँ, क्योंकि गुरुके आदेश से सर्वतत्त्व प्रत्यक्षके समान प्रतिभासित होता है || ७६ || जबतक आप जैसोंसे धर्मका रहस्य नहीं सुना है, तब तक धर्मविषयक भ्रान्तिका नाश नहीं हो सकता है । क्या कहीं भी रात्रिका अन्धकार सूर्यके विना नष्ट होता हुआ देखा गया है ? ॥७७॥
राजा श्रेणिक ऐसे वचन सुनकर अपनी दृष्टिके प्रसादसे भव्यजीवों की सभाको सम्मुख करते हुए भक्तिसेनीभूत राजासे गौतमस्वामी बोले- हे राजन्, इस अपार संसार सागरके दुःखोंसे निकालकर मनुष्यों को अक्षय सुखवाले मोक्ष में धरता है, उसे ही परमार्थसे धर्म जानना चाहिए || ७८-७९ || जिससे पुरुषोंका नि यसरूप फलका आश्रय ऐसा अभ्युदय फलित (सिद्ध) होता है, उसे आम्नायके जाननेवाले धर्माचार्य धर्म कहते हैं ॥८०॥ धर्म-कार्य में परम कुशल लोग मुक्तिप्राप्तिके लिए पृथक्-पृथक् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्रको गृहस्थोंका धर्म कहते हैं ||८१|| इनमें से सम्यग्दर्शनका स्वरूप इस प्रकार है -- देवमें निर्मल देव-बुद्धि होना, धर्ममें निर्दोष धर्म- बुद्धि होना और गुरुमें मल-रहित गुरुबुद्धि होना, इसे ही सम्यक्त्व या सम्यग्दर्शन कहा जाता है ||८२|| इसके विपरीत अदेव में देव-बुद्धि होना, अधर्म में धर्म-बुद्धि होना और अगुरुमें गुरु- बुद्धि होना यह मिथ्यात्व या मिथ्यादर्शन है । ( जो कि संसार सागर में डुबाता है ) || ८३ || जो इस लोकमें भूर्भुवः-स्वस्त्रयीनाथोंसे पूजित, और काम-विजेता है तथा राग-द्वेषसे सर्वथा रहित है, वही सच्चा देव कहा जाता है || ८४|| वही देव सच्चा ब्रह्मा है, वही सच्चा विष्णु है, वही सच्चा महेश्वर है और वही सच्चा बुद्ध है जो इन वक्ष्यमाण अठारह दोषोंसे रहित होता है || ८५|| वे अठारह दोष ये हैं- क्षुधा, पिपासा, भय, द्वेष, राग, मोह, जरा, रोग, चिन्ता, मृत्यु, मद, खेद, रति, स्वेद, विस्मय, विषाद, जन्म, और निद्रा ये अति दुस्तर अठारह दोष जिसके नहीं होते हैं, वही अवश्य त्रिभुवनका
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