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श्रावकाचार-सारोबार
२६७ जगज्जनमनोजाड्यध्वान्तध्वंसविशारदः । स्त्यानध्यानानले कर्मकाष्ठं यो हुतवान् प्रभुः ॥९ संसारसागरोत्तारपोतवारित्रमुत्तमम् । यं जिनेन्द्रं पुराणज्ञाः पुराणपुरुषं विदुः ।।५० कुवादिवातनक्षत्रप्रभावं हरता सता । विभाकरेण येनाऽऽशु चक्र भव्याब्जभासनम् ॥५१ रत्नत्रयमयस्फारतारहारातिशायिने । यस्मै सन्मतये मुक्तिः स्पृहयामास रागतः ॥५२ धर्मोपदेशमासाद्य यस्माद्विस्मयकारिणः । परस्परं त्यजन्ति स्म तिर्यश्चोऽपि विरोधताम् ॥५३ जडराशिसमुत्पन्ना गरलेन सनाभिताम् । दधतीव सुधा यस्य गिरा साम्यमुपेयुषी ॥५४ सच्चारित्रतनुत्रान्तर्वत्तिगात्रे गतस्मये । तस्मिन् रतिपतेर्वाणा निशिताः कुण्ठितामगुः ॥५५ वर्धमानो जिनेशानो लसद्-ध्यानो दयाधनः । हतमानः समायातः स भूप विपुलाचलम् ॥५६ निशम्य वनपालस्य भारतीमिति भूपतिः । आसोदानन्दरोमाञ्चकवचाञ्चितविग्रहः ॥५७ ततः पीठात्समुत्थाय प्रमोदमदमेदुरः । गत्वा सम पदान्येष तां दिशं भक्तितोऽनमत् ।।५८ स्वाङ्गसङ्गपवित्राणि वस्त्राण्याभरणानि च । वनपालाय भूपालस्ततो हर्षाद व्यशिश्रणत् ॥५९ यात्राभिसूचिनों भेरीमुररीकृतसद्गुणः । दायित्वा महीपालश्चचाल सपरिच्छदः ॥६० अप्सरोभिः समाकोण मरुल्लीलाविराजितम् । अद्राक्षीत्स पुरोगच्छन्नचलं स्वर्गसन्निभम् ॥६१ तत्र मुक्त्वाऽऽतपत्राद्यं राज्यालङ्कारमूजितम् । स विवेश सभा भूपः सुरोरगनराचिंताम् ॥६२
जगज्जनोंके मनकी जड़ता रूप अन्धकारके विध्वंस करनेमें विशारद हैं, प्रज्वलित ध्यानरूप अग्निमें कर्मरूप काष्ठको जिन्होंने भस्म कर दिया है, संसार-सागरसे पार उतारने में जहाजके समान उत्तम चारित्रके धारक जिसको पुराणोंके ज्ञाता लोग पुराण-पुरुष कहते हैं, कुवादियोंके समुदायरूप नक्षत्रोंके प्रभावको हरण करते हुए जिस प्रभाकरने अति शीघ्र ही भव्यजीवरूपी कमलोंको विकसित कर दिया है, रत्नत्रयमयो प्रकाशमान विशाल सुन्दर हारके धारण करनेसे अतिशयशाली जिस सन्मतिवाले भी वर्धमान स्वामीको वरण करनेके लिए परम अनुरागसे मुक्ति रूपी वनिताने इच्छा की है, आश्चर्यकारी जिस प्रभुसे धर्मका उपदेश प्राप्त करके तिर्यंचोंने भो परस्परके वैरविरोधको छोड़ दिया है, जड़ (जल-) राशिवाले समुद्रसे उत्पन्न हुई और विषके साथ सहोदरी (भगिनी) पनको धारण करनेवाली भी सुधा जिनकी वाणीके साथ समानताको धारण नहीं करती है, अर्थात् जो अमृतसे भी अधिक मधुर वाणोको बोलते हैं, सम्यक् चारित्ररूप तनुत्र (शरीर-रक्षक कवच) से सुरक्षित शरीरवाले और गर्व-रहित जिस प्रभुके ऊपर रति-पति कामदेवके तीक्ष्ण बाण भी कुण्ठित हो गये हैं, ऐसे मान-विनाशक, होकरके भी दयाके धनी और ध्यानसे शोभायमान जिनेशान श्री वर्धमान स्वामी विपुलाचल पर्वतपर पधारे हैं ।।४९-५६॥
वनपालकी यह सुन्दर वाणी सुनकर श्रेणिक महाराज आनन्दसे रोमाञ्च रूप कवचसे संयुक्त शरीर वाला हो गया अर्थात् परम हर्षसे विभोर हो गया ॥५७। तब प्रमोद रूप परम हर्षसे व्याप्त होकर और सिंहासनसे उठकर सात पग' आगे जाकर उस दिशाको भक्तिसे श्रेणिकने नमस्कार किया ॥५८।। तत्पश्चात् अपने शरीरके संगसे पवित्र हुए समस्त वस्त्र और आभूषण राजाने परम हर्षसे वनपालके लिए दे दिये ॥५२॥ पुनः वन्दना-यात्राको सूचित करनेवाली भेरीको बजवा करके सद्गुणोंको स्वीकार करनेवाला वह श्रेणिक महाराज राज्य-परिकरके साथ प्रभुकी वन्दनाको चला ॥६०॥ तब आगे जाते हुए उस श्रेणिकने देवाङ्गनाओंसे व्याप्त, और देवलीलासे शोभित स्वर्गके सदृश विपुलाचलको देखा ॥६१।। वहाँपर सम शरणके बाहिर ही छत्र-चामर आदि
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