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धावकाचार-संग्रह जीव स्वं नन्द प्रकटजलनिधिप्रस्फुरन्मेखलायाः
स्वामी राजनिलाया भव गुरुभवनाभोगविस्तारिकोत्तिः । इत्यं तोष्टयमानः कृतविततरवैश्चारणैर्गीयमानो ।
गन्धवैधर्मयुक्तस्त्यजति दिनमुखे चारुनिद्रां मनुष्यः ॥१२२ कुष्टिन्नुत्तिष्ठ यामप्रमितमितभभूद्वासरं दुष्टचेष्टः
स्फूर्जत्भुत्क्षामगात्रस्तव सुतनिचयो रारटोति प्रकामम् । इत्यं वाक्यानि हालाहलकणनिचितान्युच्चकैः स्वप्रियायाः
शृण्वन् पालालक्लुप्तं शयनमशरणो मुञ्चते पुण्यहीनः ॥१२३ सकलकुलाचलकलितां धरणीमभ्युद्धरन्ति कृतपुण्याः । तृणमपि कुब्जीकतुं न परे प्रभवः स्वसामर्थ्यात् ॥१२४ पच्चको लघुनापि बाहुबलिना संग्रामभूमौ जितो
यच्छोपालनरेश्वरेण नियतं तीर्णो विशालो निधिः । कैलाशः स्वभुजाद्वयेन विभुना यद्रावणेनेद्धृत
स्तज्जन्मान्तरसंभवस्य निखिलं पुण्यस्य विस्फूजितम् ॥१२५ येषामालोक्य यच्छोभा विमाना चुसदां गृहाः । बभूवुस्तेषु सोधेषु पुण्यवन्तः समासते ॥१२६ उच्चगोत्रमें जन्मे हुए लोगोंके द्वारा (मैं पहिले सेवा करू-मैं पहिले सेवा करू) इस प्रकारकी अहंअहमिकासे जिनकी सेवा की जाती है, बालकालमें जो स्त्रियोंके केवल हाथोंके द्वारा एकसे दूसरेके हाथोंमें संचार किये जाते हैं, यौवनकालमें असमान (अनुपम) लक्ष्मीके द्वारा निश्चितरूपसे आलिगन किये जाते हैं, और वृद्धावस्थामें जो जीव जिनदीक्षाको धारण करते हुए मोक्षको प्राप्त होते है, सो यह सब धर्मका सामर्थ्य है, अर्थात् धर्मके प्रतापसे ही उक्त सभी प्रकारके सुख सभी अवस्थाओंमें प्राप्त होते हैं॥१२॥ 'हे राजन्, तुम चिरकाल तक जिओ, आनन्दको प्राप्त होओ, सर्व
ओर उत्ताल तरंगोंवाला समुद्र जिसकी भेखला है, ऐसी इस वसुधाके तुम स्वामी बनो और इस विशाल संसारके मध्य सर्वत्र तुम्हारी कीर्तिका विस्तार होवे, इस प्रकार चारणजनोंसे स्तुति किये जाते हुए एवं उच्चस्वरसे गन्धवोंके द्वारा गुण-गान किये जाते हुए धर्मयुक्त मनुष्य प्रभातकालके समय अपनी मीठी सुन्दर निद्राको छोड़ते हैं। भावार्थ-जिसने पूर्वजन्ममें धर्म किया है, वह मनुष्य प्रातःकालके समय चारणों और गन्धर्वोके द्वारा उक्त प्रकारसे गुण-गानपूर्वक जगाया जाता है ॥१२२॥ हे कुष्टिन्, उठ, एक पहर प्रमाण दिन चढ़ गया और दुष्टचेष्टावाला तू अभी तक सो रहा है । और अति क्षुधासे कृश शरीरवाले ये तेरे पुत्रोंका समुदाय भूखसे बिलख रहा है। इस प्रकार हालाहल विषके कणोंसे व्याप्त और उच्चस्वरसे कहे गये अपनी स्त्रीके वाक्योंको सुनता हुआ पुण्यहीन मनुष्य अशरण होता हुआ पलालसे बने अपने शयनको छोड़ता है ॥१२३॥ जिन्होंने पूर्व जन्ममें पुण्य किया है वे मनुष्य समस्त कुलाचलोंसे संयुक्त इस पृथिवीका अपनी सामर्थ्यसे उद्धार करते हैं । किन्तु पुण्यहीन मनुष्य एक तिनकेको भी टेढ़ा करने में समर्थ नहीं होते हैं ॥१२४॥
जो चक्रवर्ती भी भरत अपने लघुभ्राता बाहुबलीके द्वारा संग्रामभूमिमें जीत लिया गया, श्रीपाल नरेश्वरने विशाल समुद्रको अपनी भुजाओंके द्वारा नियमसे पार कर लिया और त्रिखण्डेश रावणने अपनी दोनों भुजाओंके द्वारा कैलाश पर्वतको उठा लिया, सो यह सब जन्मान्तरमें उपाजित किये गये, पुण्यका प्रभाव है ॥१२५।। जिनकी शोभाको देखकर देवोंके विमान भी साधारण 'गृह'
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