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श्रावकाचार-संग्रह अन्येभ्यो नित्यमाख्याति मृतोऽद्य दिवसेऽमुकः ।
स्वनिःशङ्को न जानाति समायाति यमः क्वचित् ॥१०१ जीवन्तं मृतकं मन्ये देहिनं धर्मवजितम् । मृतोऽपि धर्मसंयुक्तो दीर्घजीवी भविष्यति ॥१०२ शरीरमण्डनं शीलं न सुवर्णवहं तनुः । रागो वक्त्रस्य ताम्बूलं सत्येनैवोज्ज्वलं मुखम् ॥१०३
इति श्रीपूज्यपादकृतः श्रावकाचारः समाप्तः ।
अमुक पुरुष मर गया। किन्तु अपने विषयमें निःशंक होकर यह नहीं जानता है कि यमराज कब आ रहा है ।।१०१॥ ग्रन्थकार कहते हैं कि मैं धर्म-रहित मनुष्यको जीते हुए भी मरा मानता हूँ। किन्तु धर्म-संयुक्त मरा हुआ भी पुरुष दोर्घजीवी रहेगा ।।१०२।। शरीरका मण्डन शील है, सुवर्णको धारण करना शरीरका मंडन नहीं है । ताम्बूल मुखका राग (मंडन) नहीं है, किन्तु मुख तो सत्य बोलनेसे ही उज्ज्वल होता है ।।१०३।।
इस प्रकार पूज्यपादकृत श्रावकाचार समाप्त हुआ।
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