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व्रतोद्योतन-श्रावकाचार
२२३ भार्या मृत्वा जायते किन्न माता माता मृत्वा जायते किन्न भग्नी (?) । राजा मृत्वा जायते किन्न दासो दासो मृत्वा जायते किन्न राजा ॥१५४
वप्रो' पुत्रः पुत्रो वप्रो माता भार्या भार्या माता।।
भग्नी पुत्री पुत्री भग्नी स्वामी दासो दासः स्वामी ॥१५५ बन्धुर्वेरी वैरी बन्धुमित्रं द्रोही द्रोही मित्रम् । युक्ति चैतां संसारस्य ज्ञाता भो को ना पारस्य ॥१५६
असारः संसारः क्षणिक इव दृष्टो ननु मया
__ स्वरूपं यद्-दृष्टं विलसदधुना तन्न सुचिरम् । अनित्ये सत्येवं कुत इह विषादं च कुरुषे
विचार्येतद्वाक्यं कुरु कुरु सदा धर्ममनघम् ॥१५७ एको हि गच्छति चतुर्गतिषु प्रसङ्गमेकोऽपि सर्वभुवनं स्थितिबन्धमेति । एकोऽपि जन्म तनुजे लभतेऽवसानमंकोऽपि दुःखसुखमाचरतेऽथ जीवः ॥१५८ एकोऽपि जीवो विदधाति राज्यमेकोऽपि रङ्कस्य गति तनोति। .
एकोऽपि सिद्धि लभते स्वभावादेकत्वचिन्तां स्मर भव्यराशेः ॥१५९ एक एव जिनो देव एकमेव श्रुतं तथा । एक एव गुरुः प्रोक्तः सिद्धिरेकैव नान्यथा ॥१६०
अन्याऽक्षिकाऽन्या रसनाऽन्यनासा न्यङ्गान्यकर्णान्यवचोऽन्यरूपम् ।
अन्यस्वभावोऽन्यपिताऽन्यमाता भवे भवेऽन्यत्वमुपैति जीवः ॥१६१ हुए दश प्रकारके दयामयी धर्मको छोड़कर परलोकके मार्गमें अन्य कोई शरण नहीं है, ऐसा विचार करके अशरण भावना भानी चाहिए ॥१५३।। इस संसार में स्त्री मरकर क्या माता नहीं हो जाती है, माता मरकर क्या भगिनी नहीं हो जाती है, राजा मरकर क्या दास नहीं हो जाता है, और दास मरकर क्या राजा नहीं बन जाता है ॥१५४॥
पिता मरकर पुत्र बन जाता है, पुत्र मरकर पिता बन जाता है। इसी प्रकार माता स्त्री और स्त्री माता हो जाती है । भगिनी पुत्री और पुत्री भगिनी हो जाती है। स्वामी दास और दास स्वामी बन जाता है ॥१५५।। बन्धु बैरी हो जाता है और बैरी बन्धु हो जाता है, मित्र द्रोही (शत्रु) और द्रोही मित्र बन जाता है। इस प्रकारको युक्तिका हे भव्य, तू विचार कर । संसारके पारका जाननेवाला कोई नहीं है ।।१५६।। यह संसार असार है, निश्चयसे मैंने इसे क्षणिकके समान ही देखा है। अभी जिस वस्तुका जो स्वरूप विलास करता हुआ देखा, वह चिरकाल तक स्थायी नहीं दिखा । संसारके इस प्रकार अनित्य होनेपर हे भव्य, तू यहाँ किस कारणसे विषाद करता है। मेरे इस वाक्यको विचार करके सदा ही निर्दोष धर्मका पालन कर । यह संसार-भावना है ॥१५७॥ अकेला ही यह जीव चतुर्गतियोंमें जाता है, और अकेला ही सर्वभूतलको स्थितिके बन्ध-प्रसंगको प्राप्त होता है। अकेला ही पुत्ररूपसे जन्म लेता है और अकेला ही मरणको प्राप्त होता है। यह जीव सदा अकेला ही सुख और दुःखका आचरण करता है, अर्थात् उन्हें भोगता है ॥१५८॥ यह जीव अकेला ही राज्यको धारण करता है और अकेला हो दरिद्रकी दशाको प्राप्त होता है। यह जीव अपनी भव्यराशिके स्वभावसे अकेला ही सिद्धिको प्राप्त करता है। इस प्रकार एकत्वभावनाका चिन्तवन कर ||१५९॥ जिनदेव एक ही हैं और श्रुत भी एक ही है। गुरु भी एक ही कहा गया है
और सिद्धि भी एक ही है, यह बात अन्यथा नहीं है ॥१६०॥ मेरे आत्मासे भिन्न इस शरीरमें १. वप्रस्ताते इति विश्वः । २. उ 'अनित्या तत्रत्वं' पाठः ।
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