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व्रतोद्योतन-श्रावकाचार
चतुष्टयं कषायस्य मिथ्यात्वस्य त्रयं तथा । एषां प्रशमनं यत्र तत्रोपशमिकं भवेत् ॥३१७ सप्तप्रकृति संस्थाने मिर्णाशो यत्र दृश्यते । क्षायिकं तत्र विज्ञेयं सम्यक्त्वं जिननायकैः ॥ ३१८ रसप्रकृतिनिर्णाशे तिष्ठते यत्र केवलम् । क्षायोपशमिकं प्रोक्तं सम्यक्त्वं व्रतधार्मिकैः ॥ ३१९ जिनाज्ञा जिनमार्गो जिनसूत्रं जैनशास्त्र विस्तारः । जैनागमसकलार्थो जैननमस्कारबीजानि ॥३२० गुरुपादमूल संभवमवगाढं जायते तरां पुंसि । जिनचरणमूलसन्निधिजातं परमावगाढं च ॥३२१ समस्त कर्मनिर्णाशः संक्षेपः कथितो जिनैः । लोकसम्बोधनायासीज्जिनधर्मोपदेशना ॥ ३२२ इत्थं षोडशभेदेन सम्यक्त्वं यस्य वर्तते । चित्ते विचारसंयुक्तो तस्य मोक्षपदं भवेत् ॥ ३२३ तस्मै निःशङ्किताङ्गाय नमस्कारोऽस्तु नित्यशः । येन स्वर्णाचलं नीतो मन्त्रादञ्जनतस्करः ॥ ३२४ तस्मै निःकांक्षिताङ्गाय नमस्कारोऽस्तु नित्यशः । येनानन्तमती चक्रे शोल व्रत विभूषिता ॥ ३२५ तस्मै निर्विचिकित्सायै नमस्कारोऽस्तु नित्यशः । ययोद्यायनभूपाल: प्रसिद्धो भुवने कृतः ॥ ३२६ तस्मै चामूढनेत्राय नमस्कारोऽस्तु नित्यशः । यस्मान्नैव परित्यक्ता रेवत्या निश्चया रुचिः ॥ ३२७ दोषोपगूहनाङ्गाय नमस्कारोऽस्तु नित्यशः । जिनेन्द्रभक्तवद्ये न नान्यगुह्यं प्रकाशितम् ॥३२८ स्वस्थितीकरणाङ्गाय नमस्कारोऽस्तु नित्यशः । स्वस्थाः प्राणिगणा येन संजाता वारिषेणवत् ॥ ३२९
का मिथ्यात्व (दर्शनमोह) इन सातका उपशमन हो, वहाँ औपशमिक सम्यक्त्व होता है ||३१७|| उक्त सातों प्रकृतियोंका आत्यन्तिक विनाश (क्षय) दृष्टिगोचर हो, वहाँपर जिन नायकोंसे कहा गया क्षायिक सम्यक्त्व जानना चाहिए || ३१८ || रस अर्थात् छह प्रकृतियोंके (अनन्तानुबन्धि, कषाय चतुष्क, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वके) विनाश हो जानेपर ( और एक सम्यक्त्वप्रकृतिके उदय रहनेपर) जो सम्यक्त्व रहता है, उसे व्रती धार्मिकजनोंने क्षायोपशमिक सम्यक्त्व' कहा है || ३१९॥ जिनदेवकी आज्ञाका श्रद्धान (आज्ञासम्यक्त्व ) जिनमार्गपर चलना ( मार्गसम्यक्त्व) जिनसूत्र (सूत्रसम्यक्त्व) जैनशास्त्रोंका विस्तार (विस्तारसम्यक्त्व) जैनागमसकलार्थ (अर्थसम्यक्त्व) जैननमस्कार (संक्षेपसम्यक्त्व) बीजपदरूप (बीजसम्यक्त्व) गुरु के पादमूलमें उत्पन्न (समुद्भव या सम्भवसम्यक्त्व) अत्यन्त गाढ़ श्रद्धान (अवगाढसम्यक्त्व) और जिनेन्द्र के चरण-कमलोंके ममीप होनेवाला परमावगाढ़सम्यक्त्व पुरुषमें उत्पन्न होता है || ३२० - ३२१|| समस्त कर्मों के विनाशरूप संक्षेप सम्यक्त्व जिनभगवान् ने कहा है । लोगोंके सम्बोधनके लिए जिनधर्मका उपदेश करना उपदेशसम्यक्त्व है | इस प्रकार सोलह भेदरूप सम्यक्त्व जिसके चित्तमें रहता है, वह सद्-विचारसे युक्त जीव है और उसको मोक्षपद प्राप्त होता है ।। ३२२-३२३।। उस निःशङ्कित अंगको मेरा नित्य नमस्कार हो, जिसके द्वारा अंजनचोर मंत्रजापसे सुमेरु पर्वतपर ले जाया गया || ३२४ ॥ उस निःकांक्षित अंगको मेरा नित्य नमस्कार हो, जिसके द्वारा शीलव्रत से विभूषित अनन्तमती जगत् में प्रसिद्ध हुई || ३२५ ॥ उस निर्विचिकित्सा अंगके लिए मेरा नित्य नमस्कार हो जिसके द्वारा उद्यायन राजा संसार में प्रसिद्ध हुआ || ३२६|| उस अमूढदृष्टि अंगको मेरा नित्य नमस्कार हो, जिससे रेवती रानीके द्वारा निश्चय रुचि (श्रद्धा) नहीं छोड़ी गई || ३२७॥ दोषोंके उपगूहन करनेवाले अंगको मेरा नित्य नमस्कार हो, जिसके द्वारा जिनेन्द्रभक्त सेठके समान अन्यकी गुप्त बात नहीं प्रकाशित की जाती है ॥ ३२८ ॥ उस स्वस्थितीकरण अंगको मेरा नित्य नमस्कार हो, जिसके द्वारा प्राणिगण वारिषेणके समान
१. वस्तुतः यह लक्षण कृतकृत्य वेदक सम्यक्त्व का है।
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।—अनुवादक
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