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व्रतोद्योतन -आवकाचार
यथाङ्गिशलके' पक्षी स्थानमाश्रित्य गच्छति । तथात्मा पुद्गले धत्ते गमनागमनक्रियाम् ॥४०१ एतेन भूतसंयोगो भिन्नोऽभिन्नः प्रकल्पितः । जीवपुद्गलयोरैक्यं घटते न कदाचन ॥४०२ जीवो जिनागमे चान्यः पुद्गलोऽन्यः प्रकीत्तितः । तं पुद्गलं परं हित्वा जीवो मोक्षं प्रति व्रजेत् ॥४०३ यद्येक एव जीवः स्यात्समस्तभुवने ततः । एके दारिद्रमापन्ना अपरे सुखिनः कथम् ॥४०४ एके तिष्ठन्ति सन्मार्गे सेवन्तेऽन्ये कुमार्गकम् । एके स्त्रियोऽपरे षण्ढाः पुमांसोऽन्ये कुवादिनः ॥४०५ तस्माच्च बहवो जीवा जैनमार्गे निरूपिताः । त्रैलोक्यं जीवसम्पूर्ण मेरुकाण्डेन तद्गतिः ॥ ४०६ यदि स्यात्क्षणिको जीवो बौद्धमिथ्यात्वमोहिते । ततश्चिरन्तनां वार्तामवगच्छत्यसौ कथम् ॥४०७ वासना यदि जानाति ततः सा न विलीयते । भ्रान्तिर्यदि जगत्सवं ततो मद्यपचेष्टितम् ॥४०८ सौगता नावगच्छन्ति हेयाहेयं गुणागुणम् । धर्मान्तरमते लग्ना दुष्टा पापेन मोहिताः ॥४०९ सर्वसङ्गपरित्यागाद् ये तं पश्यन्ति योगिनः । जीवस्वरूपतां कल्पं ते जानन्ति निरन्तरम् ॥४१० अहो मूर्खा न जानीयुर्जीवतत्त्वस्य लक्षणम् । भक्ष्याभक्ष्यं गमागम्यं कृत्याकृत्यं परापरम् ॥४११ उपयोगमयो जीवो भुक्तकर्मा तदजंकः । स्यादमूर्तश्च पुमान् मुक्तकर्मा निरञ्जनः || ४१२ जिनेश्वर मुखोत्पन्नं वाक्यं स्वर्गापवर्गदम् । मिथ्यात्वकन्ददलनं श्रूयतां भो कुवादिनः ॥४१३
है, उसी प्रकार यह आत्मा भी पुद्गलरूप शरीरमें गमन - आगमनरूप क्रियाको करता रहता है । ।।४००-४०१ ।। इस विवेचनसे सिद्ध हो जाता है भूतोंका संयोग भिन्न है और उनसे आत्मा भिन्न है, जीव और पुद्गलकी एकता कभी भी घटित नहीं होती है ||४०२ || जैन आगममें जीव अन्य और पुद्गल अन्य कहा गया है । जीव इसपर पुद्गलको छोड़कर मोक्षके प्रति चला जाता है । ||४०३ || यदि समस्त संसार में एक ही जीव होता, तो फिर कितने ही लोग दरिद्रताको प्राप्त और कितने ही दूसरे लोग सुखी कैसे दृष्टिगोचर होते हैं ||४०४|| कितने ही लोग सन्मार्गमें स्थित हैं और कितने ही दूसरे कुमार्गका सेवन करते हैं, कितने ही जीव स्त्रीके रूप में दिखते हैं और कितने ही नपुंसक के रूपमें तथा कितने ही पुंवेदी दिखाई देते हैं, तथा कितने ही मिथ्यावादी दिखते हैं सो यह सब विभिन्नता क्यों दिखाई देती है ॥ ४०५ || इस कारण जैनमार्गमें अनेक जीव निरूपण किये गये हैं । यह सारा ही त्रैलोक्य जीवोंसे भरा हुआ है और सुमेरुके मूलकांडसे उसकी गति मानी गई है || ४०६|| बौद्धोंके मिथ्यात्व - मोहित मत के अनुसार जीव क्षणिक (क्षण- विनश्वर) होता, तो फिर वह चिरकाल पुरानी बातको कैसे जान सकता है ||४०७॥ यदि आप बौद्ध कहें कि पुरानी बातोंको वासना जानती है, तो फिर वह विलीन नहीं हो सकतो । यदि आप कहें कि यह सारा जगत् भ्रान्तिरूप है, वास्तविक नहीं है, तो यह उनका कथन मद्य पायी पुरुषकी चेष्टाके समान है ॥ ४०८|| बौद्ध लोग - आय और गुण-दोषको नहीं जानते हैं, धर्मान्तरके मत में संलग्न लोग दुष्ट हैं और पाप से मोहित हैं || ४०९ || जो योगी-लोग हैं, वे सर्वं संगके परित्यागसे उस जीवको देखते हैं, वे जीव से यथार्थ स्वरूपको निरन्तर जानते हैं ॥ ४१० ॥ अहो, ये अन्य मतावलम्बी मूर्ख लोग जीवतत्त्व के लक्षणको नहीं जानते हैं और न वे भक्ष्य अभक्ष्यको, गम्य-अगम्यको, कर्तव्य-अकर्तव्य और भले-बुरे को ही जानते हैं ||४११ ॥ जीवका स्वरूप – जीवज्ञान दर्शन इन दो उपयोगमयी है, कर्मोंका उपार्जन करने वाला है और उनके फलको भी भोगनेवाला है, अमूर्त है और कर्मोंसे मुक्त होकर निरंजन अवस्थाको प्राप्त हो जाता है ।।४१२ ||
हे कुवादियो, सुनो - जिनेश्वर के मुख से उत्पन्न हुआ वाक्य स्वर्ग और मोक्षका देनेवाला है,
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