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व्रतोद्योतन-श्रावकाचार
२२९ शास्त्रावज्ञा वाहनं क्षार-वाक्यं सर्वज्ञोक्तं निन्दितं येन चक्रे।
वायोः प्राप्तिविस्मृतिर्मूकभावो ग्राहो जाडचं जायते तस्य चित्ते ॥२०५ 'वातला प्रकृतिर्यस्य तस्य कुण्ठा मतिर्भवेत् । पित्तला प्रकतिर्यस्य तस्य तीवा मतिर्भवेत् ॥२०६
अशुद्धचित्तेन करोति पूजां जिनेश्वराणां गुणसागराणाम् । अशौचदेहेन ददाति दानं मुनीश्वराणां परमार्थहेतोः ॥२०७ त्रिंशत्कोटयाः कोटी वारिनिधीनां स्थितिः समाख्याता।
जीवस्य तस्य महती ज्ञानावरणीयकर्मणोऽभ्युदये ॥२०८ मनोवाक्कायचित्तेन स्वशरीरस्फुरणानि च । आहारो यत्र नीहारो जीवद्रव्यं तदुच्यते ॥२०९ पञ्चेन्द्रियमनोवृत्तिनिःश्वासोच्छवासवाचना। एते तिष्ठन्ति नो यत्राजीवद्रव्यं तदुच्यते ॥२१० लोकानशिखरे याति पापपुण्यविजितः । जीवो यस्य सहायेन धर्मद्रव्यं तदुच्यते ॥२११ लोकानशिखरं हित्वाऽलोकाकाशं न गच्छति । जीवो यस्य सहायेनाधर्मद्रव्यं तदुच्यते ॥२१२ जीवपुद्गलयोर्योग्यमवकाशं ददाति यत् । शाश्वतानुपमं तत्त्वं तदाकाशत्वमुच्यते ॥२१३ तद्वस्तु प्रेक्ष्यते नव्यं तच्च जोणं प्रजायते । यस्य प्रभावतो लोके कालद्रव्यं तदुच्यते ॥२१४ पुलाकः सर्वशास्त्रज्ञो वकुशो भव्यबोधकः । कुशोलः स्तोकचारित्रो निर्ग्रन्थो ग्रन्थिहारकः ।।२१५ स्नातकः केवलज्ञानो यः पश्यति चराचरम् । निर्गन्याः पञ्चभेदाः स्युः परं सर्वे तपोधनाः ॥२१६ षड्द्रव्यचिन्तनं पञ्चनिर्ग्रन्थानां च वन्दना । येषां चित्ते स्फुरन्त्येते ते यान्ति परमं पदम् ॥२१७ वे मरणको प्राप्त हो जाते हैं ।।२०४॥ जो पुरुष शास्त्रोंकी अवज्ञा, सवारी पर चढ़ना, अथवा दूसरोंसे वोझा ढुवाना, तीखे वचन और सर्वज्ञ-भाषित वाक्यकी निन्दा करता है, उसके वायु रोगकी प्राप्ति, विस्मृति, मूकता, ग्रह-ग्रहणता, और चित्तमें जड़ता होती है ॥२०५॥ जिस पुरुषको वायु प्रधान प्रकृति होती है, उसकी बुद्धि कुण्ठित होती है। तथा जिस पुरुषको प्रकृति पित्त प्रधान होती है, उसकी बुद्धि तीव्र होती है ।।२०६॥ जो गुणोंके सागर ऐसे जिनेश्वरोंकी अशुद्ध चित्तसे पूजा करता है और अशुचि देहसे मुनीश्वरोंको परमार्थके निमित्त दान देता है उस जीवके ज्ञानावरणीय कर्मकी तीस कोड़ा कोड़ी सागरोपम उत्कृष्ट स्थिति कही गई है, ऐसे तीव्र कर्मका उसके उदय होनेपर मनुष्य अत्यन्त मन्द बुद्धिवाला मूर्ख होता है ।।२०७-२०८। जिसके मन, वचन, कायके निमित्तसे शरीरमें स्फुरण होते हैं, आहार और नीहार होता है, वह जीव द्रव्य कहा जाता है ।।२०९।। जिसमें पाँच इन्द्रियाँ, मनोवृत्ति, उच्छ्वास-निःश्वास, और वचन ये प्राण नहीं होते हैं, वह अजीवद्रव्य कहा जाता है ।।२१०।। जिसकी सहायतासे पुण्य-पापसे मुक्त हुआ जीव लोकाग्रके शिखर पर जाता है, वह धर्म द्रव्य कहलाता है ॥२११॥ जिसकी सहायतासे जीव लोकाग्रके शिखरको छोड़कर अलोकाकाशमें नहीं जाता है, वह अधर्मद्रव्य कहलाता है ॥२१२॥ जो जीव और पुद्गलके ठहरने योग्य अवकाश देता है, जो शाश्वत और अनुपम तत्त्व है, वह आकाश कहलाता है ॥२१३।। जिसके प्रभावसे लोकमें नवीन दिखाई देनेवाली वस्तु जीर्ण (पुरानी) हो जाती है, वह कालद्रव्य कहा जाता है ॥२१४।। सर्व शास्त्रोंके जानकार साधुको पुलाक कहते हैं, भव्य जीवोंको बोध देनेवाला बकुश कहलाता है, अल्प चारित्र वाला कुशील कहलाता है, और परिग्रहकी गांठको दूर करनेवाला साधु निर्ग्रन्थ कहलाता है ।।२१५॥ केवलज्ञानी स्नातक कहलाते है, जो कि इस चराचर जगत्को देखते हैं। इस प्रकार निर्ग्रन्थके पाँच भेद होते हैं । इनके अतिरिक्त शेष सभी सामान्य १. श्लोकोऽयं 'उ' प्रतो नास्ति । २. श्लोकोऽयं 'उ' प्रती नास्ति ।
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