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व्रतोद्योतन-श्रावकाचार
क्षुषा नरं कारयति प्रवेशनं गृहस्य चाण्डालकलत्रवासिनः । अपेयपानं कुरुते पिपासया जनः स्तृषातप्तमनः कलेवरः ॥ २६७ शीतं जनानां तनुते प्रभञ्जनं वर्षातुषारप्रभविष्णु शीतलम् । धर्मेण सन्तापमुपैति मानवो निदाघकालोद्भवधूपभाविना ॥ २६८ दंशमशकयुगलेन ताडितो वक्रतां नयति नो मनो मुनिः । जन्मरूपमभिगम्य नग्नता साघु (?) भवति नियमेन नारतिः ॥ २६९ स्त्रीनाम - मन्त्रस्मरणं न कुर्यात्परं स्वकीयं कलमप्यनन्तम् । व्याख्यानकालेऽमरवन्दनायां शास्त्रार्यचिन्ताकरणे तपस्वी ॥२७० निषिद्धका तीर्थकरगृहाणि प्रति प्रगच्छनिगमेऽह्निचारी । न संस्मरेद्वाहन कर्मयोग्यं शय्यादिकं वा शयने मुनीन्द्रः ॥२७१
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आक्रोशं क्षमते वधं विषहते बध्नाति नो याचनं स्वालाभं पतितं न कस्य पुरतो धर्मात्मनो भाषते । रोगे भैषजमातनोति न मुनिः कर्मप्रभाप्रेरिते लग्नेभ्योऽपि कलेवरे तृणमलेभ्यो न व्यथां जल्पति ॥ २७२ सत्कारेण समं पुरस्करणतां नो वीक्ष्यते कस्यचित् प्रज्ञावाणि-विदूषणं न वदति प्रज्ञावतां संसदि । न ज्ञानं न सुदर्शनं त्वयि मुने मूर्खोऽस्ति चेति क्रमाद् वाक्यं संयमधारको गदति नो व्यावृत्य दुष्टं प्रति ॥ २७३
मनुष्यको चाण्डाल-स्त्री-वासी घरका प्रवेश कराती है, पिपासासे तृषित सन्तप्त चित्त शरीर वाला मनुष्य नहीं पीने योग्य भी पानीको पीता है || २६७॥ वर्षा, और तुषारसे पैदा हुआ शीतल पवन मनुष्यों के शीतवेदनाको विस्तारता है, ग्रीष्मकालमें उत्पन्न होने वाली धूपसे - घामसे मनुष्य गर्मीके सन्तापको प्राप्त होता है ( फिर भी साधुजन इन परीषहोंको शान्तिसे सहन करते हैं ) || २६८ ॥ डांस-मच्छरकी युगलसे पीड़ित मुनि चित्तकी वक्रताको नहीं प्राप्त होता है । यथाजात रूपको धारणकर साधुके नग्नता होती है, फिर भी नियमसे उनके इससे अरति नहीं होती || २६९ || साघु कभी भी स्वकीय और परस्त्रियोंके नाम रूप मंत्रका स्मरण नहीं करता है, किन्तु कल अर्थात् वीर्यको रक्षा करता हुआ अनन्त (अखण्ड) ब्रह्मचर्यको पालता है। शास्त्रके व्याख्यान कालमें, देववन्दनामें और शास्त्रोंके अर्थ चिन्तन करने में वह तपस्वी संलग्न रहता है ॥२७०॥ निषिद्धिका (निर्वाण भूमि) और तीर्थंकरोंके भवनों (जिनालयों) के प्रति जाता हुआ दिनमें विचरण करने वाला साघु चलनेके कष्टोंको नहीं गिनता और न सवारीके योग्य वाहनादिका स्मरण ही करता है । वह मुनीन्द्र शयनकालमें शय्यादिका भी स्मरण नहीं करता है || २७१|| दूसरोंके आक्रोशको सहन करता है, वध-बन्धनको भी सहता है, कभी किसी वस्तुकी याचना नहीं करता और गोचरीके समय अपने आहारमें आये हुए अलाभको भी कभी किसी धर्मात्माके आगे नहीं कहता है, कर्मोंके प्रभावसे प्रेरित रोगके होनेपर भी मुनि औषधिको नहीं माँगता अर्थात् स्वयं अपनी चिकित्सा नहीं करता है । शरीर में तृण, मल आदि लगनेपर भी अपनी पीड़ाको नहीं कहता है || २७२ || साधु किसीके सत्कारके साथ किये गये पुरस्कारको भी नहीं देखता है, बुद्धिमानोंकी सभामें प्रज्ञाकी वाणीसे दूषित वचनको नहीं बोलता है । हे मुनिराज, तुममें न अपने ज्ञानका अहंकार है, न सुदर्शन ( सम्यक्त्व ) का अहंकार है और मूर्ख हूँ, इस प्रकारका ही विचार है, इस प्रकार क्रमसे प्रज्ञा, अदर्शन और अज्ञान परीषहको सहते हैं । संयम धारक साधु दुष्टके प्रति लौटकर कभी दुष्ट वाक्य
नहीं बोलता है ॥२७३॥ इस
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