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व्रतसार-श्रावकाचार
अणुव्रतानि पञ्चैव त्रिप्रकारं गुणव्रतम् । शिक्षाव्रतानि चत्वारि एते द्वादशषाव्रतम् ॥१३ कन्दमूलकसन्धानं पुष्पशाकं च वर्जयेत् । नवनीतं निशाहारमात्मघातं च तत्त्वतः ॥१४ अष्टम्यां च चतुर्दश्यां यथाशक्ति व्रतं चरेत् । त्रिकालवन्दनं कार्य प्रतिमाचंनसंयुतम् ॥१५ दुष्टानां प्राणिनां पोषो न विधेयं कदाचन । खड्मकुद्दालिकाद्यात्म-शस्त्रं नान्यस्य दीयते ॥१६ त्रिविधायापि पात्रस्य दानं देयं यथा विधि । दीनानाथगणं चापि स्वशक्त्या पोषयेत्सुधीः ॥१७ भयेन स्नेहलोभाभ्यां धर्मबुध्यापि वा परम् । सुदर्शनं श्रयेद्धीमान् न तद्धातुं क्षमो यतः ॥१८ सुखे दुःखे भयस्थाने पथि दुर्गे रणेऽपि वा । सदा श्रीपञ्चमन्त्रस्य पाठं कार्य पदे पदे ||१९ हिसानृतपरद्रव्य- पररामाऽतिकाङ्क्षिता । वर्जनीया प्रयत्नेन धर्मध्यानं च चिन्तयेत् ॥ २० यात्रा - प्रतिष्ठा - पूजादि क्रिया कार्या यथाबलम् । जीर्णचैत्यालयं बिम्बं चापि प्रोद्वारयेन्मुदा ॥२१ व्रतसारमिदं शक्त्या यो नरः प्रतिपालयेत् । स स्वर्गराज्य सौख्यानि भुक्त्वाऽन्ते याति निर्वृतिम् ॥२२ इति व्रतसारश्रावकाचारः ।
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उनका तो उससे स्वार्थ ( प्रयोजन) ही क्या है || १२|| पाँच अणुव्रत, तीन प्रकारसे गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत ये बारह श्रावकोंके व्रत कहे गये हैं ||१३|| श्रावकको वस्तुतः कन्दमूल, सन्धानक ( आचार-मुरब्बा), पुष्प, पत्रशाक, नवनीत और आत्मघातक रात्रि भोजन छोड़ देना चाहिये ||१४|| अष्टमी और चतुर्दशीको शक्तिके अनुसार प्रोषधव्रतका पालन करना चाहिये और जिनप्रतिमाके पूजनके साथ त्रिकाल वन्दना करना चाहिये ||१५|| हिंसा करनेवाले कुत्ते, बिल्ली आदि दुष्ट प्राणियों का पालन-पोषण कभी भी नहीं करना चाहिये । तथा खड्ज, कुदाली आदि शस्त्र दूसरेको नहीं देना चाहिये ||१६|| तीनों ही प्रकारके सुपात्रोंको विधिपूर्वक दान देना चाहिये। इसी प्रकार बुद्धिमान् श्रावकको अपनी शक्तिके अनुसार दीन और अनाथजनोंका भी भरण-पोषण करना चाहिये ||१७|| भयसे, स्नेहसे, लोभसे, अथवा परम धर्मकी बुद्धिसे भी सम्यग्दर्शनका कभी घात नहीं करना चाहिये । किन्तु बुद्धिमान् श्रावकको उत्कृष्ट सम्यग्दर्शनका आश्रय ही लेना चाहिये ॥१८॥ सुखमें, दुःखमें, भयके स्थान में, मार्ग में, दुर्ग (वन) में या रण में सदा सर्वत्र ही पद-पदपर श्री पंचनमस्कार मंत्र का पाठ करना चाहिये ||१९|| हिंसा, झूठ, चोरी, पररामासेवन और अति तृष्णाका प्रयत्नपूर्वक त्याग करना चाहिये और धर्म ध्यानका चिन्तवन करना चाहिये || २० ॥ अपने सामर्थ्यंके अनुसार तीर्थ-यात्रा, प्रतिष्ठा और पूजनादि क्रियाएँ करते रहना चाहिये और प्रमोद-पूर्वक जीर्ण (पुराने ) चैत्यालय और जिन प्रतिबिम्बका उद्धार करना चाहिये ||२१|| जो मनुष्य अपनी शक्ति के अनुसार व्रत्तोंके इस उपर्युक्त सारका पालन करेगा, वह स्वर्ग-राज्यके सुखों को भोग कर अन्तमें मोक्षको जायगा ॥२२॥
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