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व्रतसार-श्रावकाचार
अधिष्ठानं भवेन्मूलं प्रासादानां यथा पुनः । तथा सर्वव्रतानां च मूलं सम्यक्त्वमुच्यते ॥१ हिंसा-रहिये धम्मे अट्ठारह-दोस-विवज्जिए देवे। णिग्गंथे पव्वयणे सम्मत्तं होइ सद्दहणं ॥२ छप्पंचणवविहाणं अट्ठाणं जिणवरोवदिट्ठाणं । आणाए अहिगमेण य सद्दहणं होइ सम्मत्तं ॥३ एतेषु निश्चयो यस्य विद्यते स पुमानिह । सम्यग्दृष्टिरिति ज्ञेयो मिथ्यादृष्टिस्तु संशयी ॥४ मद्यमांसमधुत्यागैः सहोदुम्बरपञ्चकैः । अष्टौ मूलगुणानाहुहिणां श्रमणोत्तमाः ॥५ दिनद्वयोषितं तकं दधि वीसारनालकम् । विरसं चान्नमप्युच्चैन सेव्यं मद्यजिभिः ॥६ विद्वान्नं पुष्प-शाकं च नवनीतं च कन्दकम् । मूलकं चर्म-तोयादि वय॑ते मांसजिभिः ॥७ अच्छिन्नं फल-पूगादि माषमुद्गादिकोशिकाः । अज्ञातनाम कोटाढयं फलं वा वर्जयेत्सुधीः ॥८ वस्त्रपूतं जलं पेयं हेयं तक्रादि दुर्दशाम् । भण्डभाजनमप्युच्चैर्मकारत्रितयाशिनाम् ॥९. अगालितं जलं येन पीतमञ्जलिमात्रकम् । सप्तग्रामाग्निदग्धेन यत्पापं तद्भजत्यसौ ॥१० करोति सर्वकर्माणि वस्त्रपूतेन वारिणा । स मुनिः स महासाधुः स योगी शिवमश्नुते ॥११ मधु त्याज्यं महासत्त्वैर्मक्षिकारक्तमिश्रितैः । औषधेऽपि न तद् ग्राह्यं सुस्वार्थं किं पुनः नृणाम् ॥१२
जैसे प्रासादों (भवनों) का मूल भाग (नीव) आधार होता है, उसी प्रकार सर्व व्रतोंका मल सम्यक्त्व कहा जाता है ॥१॥ हिंसा-रहित धर्ममें, अठारह दोष-रहित देवमें और निर्ग्रन्थ प्रवचनमें श्रद्धान करना सम्यक्त्व है ॥२॥ जिनेन्द्रदेवके द्वारा उपदिष्ट छह द्रव्य, पंच अस्तिकाय और नौ प्रकारके पदार्थोंका आज्ञासे और अधिगमसे श्रद्धान करना सम्यक्त्व है ॥३॥ इन उपर्युक्त देव, धर्मादिकमें तथा तत्त्वोंमें जिसका दृढ़ निश्चय होता है, वह पुरुष सम्यग्दृष्टि जानना चाहिये और जो उनमें संशय करता है, उसे मिथ्यादृष्टि जानना चाहिये ।।४॥ मद्य, मांस और मधुके त्यागके साथ पांच उदुम्बर फलोंके त्यागको उत्तम साधुओंने आठ मूलगुण कहा है ।।५।। दो दिनका वासी तक (छांछ), दही, कमल-नाल, और विरस (चलित रस) अन्न मद्यत्यागियोंको सेवन नहीं करना चाहिये ॥६।। इसी प्रकार बींधा (घुना) हुआ अन्न, पुष्प, (पत्र) शाक, नवनीत (मक्खन), कन्द, मूलक, और चमड़ेमें रखा या चमड़ेसे भरा गया जलादि भी मांसत्यागियोंको छोड़ना चाहिये ।।७।। विना छिन्न-भिन्न किये फल, सुपारी आदि, उड़द, मूग आदि की कोशें, अज्ञात नामवाला फल, और कीड़े-युक्त फल भी बुद्धिमान् पुरुषको त्यागना चाहिये ।।८।। वस्त्रसे गाला (छाना) हुआ जल पीना चाहिये। मिथ्यादृष्टियोंके यहाँका छांछ आदि त्यागना चाहिये। इसी प्रकार मद्य, मांस और मधु इन तीन मकारोंके खानेवाले लोगोंके भाँड पात्र (वर्तन) आदि भी उपयोगमें नहीं लेना चाहिये ॥९॥ जिस पुरुषने एक अंजलो मात्र भी अगालित जल पिया है, वह पुरुष सात गांवोंको अग्निसे जलानेके पापको धारण करता है ।।१०।। जो पुरुष वस्त्रसे गाले हुए जलसे स्नान, खानपानादि सर्व कार्योको करता है, वह गृहस्थ मुनि है, महासाधु है और योगी है। वह शिव पदको प्राप्त होता है ॥११॥ महासत्त्वशाली पुरुषोंको मधु-मक्षिकाओंके रक्तसे मिश्रित मधुका सर्वथा त्याग कर देना चाहिये, औषधिमें भी उसे नहीं ग्रहण करना चाहिये। फिर जो स्वस्थ पुरुष हैं,
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