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यैर्देवदर्शनमकारि नयैकचकैः चैालिकं च दिवसाष्टमभागयुक्त्या।
यैः प्रासुकं गलितमम्बु परं न पोतं मिथ्यादृशोऽपि भवका' न पतन्ति किं ते ॥७३ भैरवे पतनं येषां स्नानं भवति सागरे । ये षडायतने भावात्पूजां कुर्वन्ति मानवाः ।।७४ मिश्रभावेन येऽयन्तो मन्यन्ते च जिनागमम् । तेऽनन्तानन्तसंसारं भ्रमन्ति च न संशयः ॥७५ साष्टाङ्ग दर्शनं हित्वा ज्ञानमष्टाङ्गसंयुतम् । त्रयोदशविधं वृत्तमपरं पूजयन्ति ये ॥७६ विकलत्रयमासाद्य प्राप्य दुःखमनेकधा । ते स्वर्गेऽनन्तसौख्येऽपि जायन्ते देववाहनाः ॥७७
. आराध्यो न विराध्यो मान्यो येषां भवति नामान्यः ।
येषां पूज्यः पूज्यो वन्द्यो येषां च वन्दनीयोऽस्ति ॥७८ इह लोके परलोके तेषां सौख्यं प्रजायते विविधम् । मरणं समाधिमरणं तेषां सञ्जायते सिद्धिः ॥७९
पात्रं परित्यज्य कुपात्रदानं कुर्वन्ति ये दृष्टिकुदृष्टिशास्त्रम् । कुभोगभूमौ वसति लभन्ते ते कुत्सिताङ्गावयवा कुभोगाः ॥८० काष्ठलेपवसनाश्म-भित्तिगानानकादिषु करोति भञ्जनम् । यः प्रमादवशगो मतिभ्रमाद रौरवे पतति सोऽत्र नानृतम् ॥८१
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जिन पुरुषोंने देव-दर्शन भी किया और दिनके अष्टम भागकी युक्तिसे अर्थात् प्रातः-सायंकाल एक-एक मुहूर्त्तके परिमाणसे व्यालु (प्रातः सायंकालीन भोजन) भी की, किन्तु जिन्होंने प्रासुक या गालित (छना हुआ) जल नहीं पिया, वे मिथ्यादृष्टि भी जीव क्या भव-काननमें नहीं गिरते हैं ॥७३|| जिन मनुष्योंका भैरव-पतन है, अर्थात् ऊंचे स्थानसे नीचे गिरते हैं, समुद्रमें जिनका स्नान होता है और जो मानव छह आयतनों (धर्मस्थानों) में भावसे पूजा करते हैं और सम्यक्त्वमिथ्यात्वरूप मिश्रभावसे वर्तन करते हुए जिनागमको मानते हैं, वे जीव अनन्तानन्त संसारमें परिभ्रमण करते हैं, इसमें सन्देह नहीं है ॥७४-७५।। जो अष्टाङ्ग सम्यग्दर्शनको, आठ अंगोंसे युक्त ज्ञानको और तेरह प्रकारके चारित्रको छोड़कर अन्य (मिथ्यादर्शन, ज्ञान, चारित्र) को पूजते हैं, वे विकलत्रय-योनिको प्राप्त होकर अनेक प्रकारके दुःख पाते हैं । वे यदि (भाग्यवशात्) अपरिमित सुखवाले स्वर्ग में भी उत्पन्न हों, तो वहाँपर भी देवोंके वाहन बनते हैं अर्थात् आभियोग्य जातिके देव होते हैं जो अश्व, गज, विमान आदिका रूप धारण कर देवोंकी सवारीके काममें आते हैं ॥७६-७७।।
जिन मनुष्योंके आराध्यदेव आराध्य ही रहता है, विराधनाके योग्य नहीं होता, जिनके मान्य पुरुष मान्य ही रहता है, अमान्य नहीं होता, जिनके पूज्य पुरुष पूज्य ही रहता है, अपूज्य महीं होता और जिनके वन्दनीय पुरुष वन्दनाके योग्य ही रहता है, अवन्दनीय नहीं होता, उन लोगोंके इस लोकमें और परलोकमें नाना प्रकारके सुख प्राप्त होते हैं, उनका समाधिमरण भी होता है और सिद्धि भी प्राप्त होती है ॥७८-७९॥ जो पात्रको छोड़कर कुपात्रको दान देते हैं (और) जिनके दृष्टि (सम्यक्त्व) और कुदृष्टि (मिथ्यात्व) समान है, वे कुभोगभूमिमें निवास प्राप्त करते हैं, जहाँपर उनके शरीरके अवयव कुत्सित (होनाधिक परिमाणवाले) होते हैं और जहाँपर भोग भी खोटे ही होते हैं ॥८०॥ जो पुरुष काष्ठ, लेप, वस्त्र, पाषाण, और भित्तिगत चित्रोंको
और वाद्य आदिपर चित्रित आकारोंको प्रमादके वशीभूत होकर बुद्धिके भ्रमसे भंजन करता है, 1. श्रावकाः13.पूढोम् । ३...चित्रं ।
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