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पूज्यपाद श्रीवकाचार विहाय कुत्सितं पात्रं तस्मात्पात्रेषु योजयेत् । आहारं भक्तिपूर्वेण श्रद्धाविगुणसंयुतः ॥६४ श्रद्धा भक्तिरलोभत्वं दया शक्तिः क्षमा सदा । विनयश्चेति सप्तैते गुणाः वातुः प्रकोतिताः ॥६५ प्रतिग्राहोन्नतस्थानं पादप्रक्षालनार्चनम् । नमस्त्रिविधयुक्तेन एषणा नवपुण्ययुक् ॥६६ विधेयं सर्वदा दानमभयं सर्वदेहिनाम् । यतोऽन्यत्र भवेज्जीवो निर्भयोऽभयवानतः ॥६७ रोगिभ्यो भेषजं देयं देहरोगविनाशकम् । देहनाशे कुतो ज्ञानं ज्ञानाभावे न निवृतिः ॥६८ तस्मात्स्वशक्तितो दानं भैषज्यं मोक्षहेतवे । देयं स्वयं भवत्यस्मिन् भवे व्याधिविजितः ॥६९ लिखित्वा लेखयित्वा च साधुभ्यो दीयते श्रुतम् । व्याख्यायतेऽथवा स्वेन शास्त्रदानं तदुच्यते ॥७० ज्ञानवान् ज्ञानदानेन निर्भयोऽभयदानतः । अन्नदानात्सुखी नित्यं निाधिर्भेषजाद् भवेत् ॥७१ श्रुतिस्मृतिप्रसादेन तत्त्वज्ञानं प्रजायते । ततो ध्यानं ततो ज्ञानं बन्धमोक्षो भवेत्ततः ॥७२ अपरस्मिन् भवे जीवो बित्ति सकलं श्रुतम् । मोक्षसौख्यमवाप्नोति शास्त्रदानफलान्नरः ॥७॥ स्वर्णचन्दनपाषाणैश्चतुरङ्गलमानकम् । कारयित्वा जिनं भक्त्या प्रत्यहं पूजयन्ति ये ।।७४ येनाकारेण मुक्तात्मा शुक्लध्यानप्रभावतः । तेनायं श्रीजिनो देवो बिम्बाकारेण पूज्यते ॥७५ आप्तस्यासन्निधानेऽपि पुण्यायाकृतिपूजनम् । तायमुद्रा न कि कुर्याद विषसामर्थ्यसूदनम् ।।७६ सुपात्रोंमें श्रद्धादि गुणोंके साथ भक्तिपूर्वक आहार देना चाहिए ॥६४॥ श्रद्धा, भक्ति, अलोभत्व, दया, शक्ति, क्षमा और विनय ये सात गुण दातारके सदा प्रशंसनीय कहे गये हैं ॥६५॥ प्रतिग्राह, उच्चस्थान, पादप्रक्षालन, अर्चन, नमस्कार, मनःशुद्धि, वचनशुद्धि, कायशुद्धि और एषणाशुद्धि ये नौ पुण्ययुक्त भक्ति कही गयी है ॥६६॥ सर्वप्राणियोंको सर्वदा अभयदान देना चाहिए, जिससे कि यह जीव उस अभयदानके फलसे परभवमें निर्भय होवे ॥६७|| रोगियोंके लिए देहके रोगोंकी नाशक औषधि देना चाहिए, क्योंकि देहके विनाश होनेपर आत्माको ज्ञान कैसे प्राप्त होगा और ज्ञानके अभावमें फिर मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता है ॥६८। इसलिए अपनी शक्तिके अनुसार मोक्षके हेतु सदा औषधिदान देना चाहिए, जिससे कि यह स्वयं इस (और पर) भवमें व्याधिसे रहित रहे ॥६९॥ साधुओंके लिए शास्त्र स्वयं लिखकर और दूसरोंसे लिखाकर जो दिये जाते हैं, अथवा स्वयं जो शास्त्रका व्याख्यान किया जाता हैं, वह शास्त्र-(ज्ञान-) दान कहा जाता है ॥७०।। ज्ञानदानसे मनुष्य ज्ञानवान् होता है, अभयदानसे निर्भय रहता है, अन्नदानसे नित्य सुखी और औषधिदानसे सदा नीरोग रहता है ।।७१।। शास्त्रोंके सुनने और स्मरण करनेके प्रसादसे तत्त्वज्ञान प्राप्त होता है। तत्त्वज्ञानसे ध्यान प्राप्त होता है । ध्यानके द्वारा कर्मबन्धसे मुक्ति मिलती है ॥७२।। शास्त्रदानसे मूर्ख भी मनुष्य परभवमें सकल श्रुतज्ञानका धारी होता है और तत्पश्चात् मोक्षके सुखको प्राप्त होता है। (इसलिए सदा शास्त्रदान देना चाहिये ।) ॥७३॥ जो मनुष्य स्वर्ण, चन्दन और पाषाणसे चार अंगुल-प्रमाण भी जिनबिम्बका निर्माण कराकर भक्तिके साथ प्रतिदिन पूजा करते हैं, वे उसके फलसे श्री जिनदेव होकर (उसी) प्रतिबिम्बके आकार द्वारा लोगोंसे पूजे जाते हैं। जिस प्रकार कि शुक्ल ध्यानके प्रभावसे जीव जिस आकारसे मुक्तात्मा होता है, वह सिद्ध लोकमें उसी आकारसे अवस्थित रहता है ॥७४-७५।। साक्षात् जिनदेवके समीप न होनेपर भी उनकी आकृतिका पूजन पुण्य-प्राप्तिके लिए होता है। साक्षात् गरुड़के अभावमें गरुड़की मुद्रा क्या विषकी सामर्थ्यका विनाश नहीं करती है ? करती ही है ॥७६॥ नास
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