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श्रावकाचार-संग्रह
सशल्योऽपि जनः क्वापि काले सौख्यं समश्नुते । अवत्तावानदुर्ध्यानसाधितात्मा तु न क्वचित् ॥ ३६० एनः सेनायुतः स्तेनः शिरःशेषोऽपि राहुवत् । कलावतामपि व्यक्तं सुवर्णं हरते कुधीः || ३६१ चुराशीलं जनं सर्वे पीडयन्ति न संशयः । अपथ्यसेविनं व्याधिमन्तं रोगगणा इव ॥३६२ स्तेनस्य सङ्गतिर्नूनं महतां स्याद्विपत्तये । राहुणा सङ्गतः किं न चन्द्रो दुःखी पदे पदे ।। ३६३ फलं चौर्यमस्येह वधच्छेदनताडनम् । अमुत्र च विचित्रोरुनरकस्तत्सङ्गसङ्गतिः ॥३६४ नियुक्तोऽपि महैश्वयं राज्ञा विक्रमशालिना । श्रीभूतिश्चर्यितोऽनन्तभवभ्रमणमासदत् ॥३६५ सुत्तात्मजः पूतः सुमित्रस्तु वणिक्चरः । चुरात्यागेन सम्प्राप्तं महोन्नतपदं सताम् || ३६६
यन्मैथुनं स्मरोद्रेकात्तदब्रह्मातिदुःखवम् । तदभावाद् व्रतं सम्यग् ब्रह्मचर्याख्यमीरितम् ॥ ३६७ कुरूपत्वं तथा लिङ्गच्छेदं षण्ढत्वमुत्तमः । दृष्ट्वाऽब्रह्मफलं मुक्त्वाऽन्यस्त्रीः स्वस्त्रीरतो भवेत् ३६८ पररामाञ्चिते चित्ते न धर्मस्थितिरङ्गिनाम् । हिमानीकलिते देशे पद्मोपत्तिः कुतस्तनी ॥३६९ परनारी नरीनत चित्तं येषामहनिशम् । तत्समोपे सरीसति न क्वापि कमलामला ||३७० स्वेदो भ्रान्तिः श्रमो ग्लानिर्मूर्च्छा कम्पो बलक्षयः । मैथुनोत्था भवन्त्यन्यव्याधयोऽप्याधयस्तथा ३७१
मनमें यदि चोरीका भाव विद्यमान है, तो वह धैर्यसे विचलित है, धर्मका वृद्धिसे दूर भाग रहा है और परलोक में सुखसे विलीन है || ३५९|| कभी किसी समय शल्ययुक्त पुरुष तो सुखको प्राप्त हो सकता है, किन्तु अदत्तादानके दुर्ध्यानसे संयुक्त आत्मा कहींपर भी कभी सुख नहीं पा सकता है ॥ ३६० ॥ पापकी सेनासे युक्त कुबुद्धि चोर शिर शेष रहनेपर भी राहुके समान कलावालोंके भी सुवर्णको व्यक्तरूपसे हरण करता है । भावार्थ - जैसे केवल शिरवाला राहु पूर्णकलावाले पूर्णमासीके चन्द्रमाको ग्रसकर उसके सुवर्ण ( उत्तम वर्ण) को भी विवर्ण (मलिन) कर देता है, उसी प्रकार अंग छिन्न-भिन्न हो जानेपर भी यदि चोरका केवल शिर भी शेष रह जाय, तो भी वह अच्छे-अच्छे कलावन्तोंके सुवर्णको हर कर उन्हें दीन विवर्ण बना देता है || ३६१ || चोरी करनेवाले मनुष्यको सभो मनुष्य पीड़ा देते हैं, इसमें कोई सन्देह नहीं है । जैसे कि अपथ्यसेवी रोगीको अनेक रोगोंके समूह पीड़ा देते हैं || ३६२॥ चोरको संगति नियमसे महापुरुषोंको भी विपत्तिका कारण होती है । देखो - राहुकी संगति से चन्द्र क्या पद-पदपर दुःखी नहीं होता है || ३६३|| चोरीरूप वृक्षके फल इस लोक में तो प्राण वध, अंगच्छेदन और ताड़न हैं, तथा परलोकमें नाना प्रकारके दुःखोंसे व्याप्त नरक हैं, जहाँपर उनके संगसे निरन्तर दुःख प्राप्त होते रहते हैं || ३६४ || देखो - पराक्रमशाली सिंहसेन राजाके द्वारा महा ऐश्वर्यवाले मन्त्री पदपर नियुक्त किया गया भी श्रोभूतिनामक सत्यघोष चोरीके पापसे अनन्त भव- भ्रमणको प्राप्त हुआ || ३६५ || और चोरीके त्यागके फलसे वसुदत्त सेठका पुत्र सुमित्र सज्जनोंके महान् उन्नत पदको प्राप्त हुआ । अतः चोरोका त्याग करना चाहिये || ३६६ || काम विकारकी अधिकतासे जो स्त्री-पुरुष विषय सेवन करते हैं, उसे अब्रह्म कहते हैं, यह अति दुःखदायक है । इस मेथुन सेवनके अभावसे जो व्रत होता है, वह उत्तम ब्रह्मचर्य नामसे कहा गया है || ३६७॥ कुरूपता, लिंगच्छेद, नपुंसकता आदि अब्रह्मसेवनके फलको देखकर उत्तम मनुष्यको अन्य स्त्रियोंका त्याग करके स्वस्त्री-सन्तोष धारण करना चाहिये || ३६८॥ मनुष्योंके परस्त्रीमें आसक्त चित्तके भीतर धर्मकी स्थिति नहीं हो सकती है । हिमसे आच्छादित देशमें कमलोंकी उत्पत्ति कैसे हो सकती है || ३६९ || जिन पुरुषोंके चित्तमें रात-दिन परनारी नृत्य करती रहती है, उनके समीपमें निर्मल लक्ष्मी कभी भी नहीं आती है || ३७० || मैथुन सेवनसे प्रस्वेद,
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