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उमाल्वामि-भावकामार देशावकाशिकं सम्यग् व्रतं ये दयते बुधाः । महावतफलं तेषां बहुपापनिवृत्तितः ॥३९८ त्यागं पापोपदेशानामनर्थानां निरन्तरम् । बनयंदण्डविरतिवतमाहमुनीश्वराः ॥३९९ पापोपदेशोऽपध्यानं हिसावानं च दुःअतिः । प्रमादाचर पञ्च भेदाः संकीतिता बुद्धः ४०० तुरङ्गान् षण्य क्षेत्रं कृत वाणिज्यमाचर । सेवस्व नृपतीन् पापोपदेशोऽयं न दीयते ॥४०१ बैरिघातपुरध्वंसपरस्त्रीगमनादिकम् । विपत्पदमपध्यानं चेदं दूराद्विवर्जयेत् ॥४०२ विषोदूखलयन्त्रासिमुसलज्वलनादिकम् । हिसोपकारकं दानं न देयं करणापरैः ॥४०३ रागवधनहेतूनामबोषप्रविधायिनाम् । शिक्षणश्रवणादीनि कुशास्त्राणां त्यजेत्सुषीः ४०४ तरूणां मोटनं भूमेः खननं चाम्बुसेचनम् । फलपुष्पोच्चयश्चेति प्रमादाचरणं त्यजेत् ॥४०५ केकिकुक्कुटमार्जारशारिकाशुकमण्डलाः । पोष्यन्ते न कृतप्राणिघाताः पारापता अपि ॥४०६ अङ्गारभ्राष्ट्रकरणमयःस्वर्णादिकारिता । इष्टकापाचनं चेति त्यक्तव्यं मुक्तिकानिभिः ॥४०७ तुरङ्गमलुलायोक्षखराणां भारवाहिनाम् । लाभाथं च नखास्थित्वविक्रयं नैव संश्रयेत् ॥४०८ नवनीतवसामधमध्वादोनां च विक्रयः । द्विपाच्चतुष्पाद्विक्रयो न हिताय मतः क्वचित ॥४०९ खेटनं शकटादीनां घटादीनां च विक्रयम् । चित्रलेपादिकं कर्म दूरतः परिवर्जयेत् ॥४१० शोषनीयन्त्रशस्त्राग्निमूसलोदुखलार्पणम् । न क्रियेत तिलादीनां संधयः सत्त्वशालिभिः ॥४११ जो ज्ञानीजन भले प्रकारसे देशावकाशिक व्रतको धारण करते हैं, उनके बहुत पापोंकी निवृत्तिसे महाव्रतोंका फल प्राप्त होता है ।।३९८॥
पापोपदेशादि अनर्थोको निरन्तर त्याग करनेको मुनीश्वरोंने अनर्थदण्ड विरति कहा है ॥३९९|| ज्ञानियोंने अनर्थदण्डके पांच भेद कहे हैं-पापोपदेश, अपध्यान, हिंसादान, दुःश्रुति और प्रमादाचरण ॥४००॥ घोड़े बैल आदिको षण्ठ (नपुंसक, बषिया) करो, खेतको जोतो, व्यापार करो, और राजाओंकी सेवा करो, इत्यादि प्रकारका पापोपदेश नहीं देना चाहिये ।।४०॥ शत्रुके घातका, नगरके विध्वंसका और परस्त्रीके यहाँ गननादिका चिन्तवन करना अपध्यान कहलाता है, यह महान् विपदाओका स्थान है, इसका दूरसे ही परित्याग करना चाहिये ॥४०२॥ करुणाशील जनोंको दूसरेके लिए विष, ओखली, यन्त्र, खग, मूसल और अग्नि आदिक हिंसाके करनेवाले पदार्थ नहीं देना चाहिये ॥४०३॥ रागभावके बढ़ानेवाले और अज्ञान या खोटे शानके विधायक खोटे शास्त्रोंका शिक्षण, श्रवण आदि ज्ञानीजनको छोड़ देना चाहिये ।।४०४॥ वृक्षोंका तोंड़नामोड़ना, भूमिका खोदना, जलका सींचना और फल-फूलोंका तोड़ना, संचय करना आदिक प्रमादरूप आचरणका त्याग करना चाहिये ॥४०५।। ज्ञानीजन प्राणियोंके धात करनेवाले हिंसक मयूर, मुर्गा, बिलाव, मैना, तोता, कुत्ता और कबूतर आदिको पालन नहीं करते हैं ।।४०६॥ अंगार कराना (कोयला बनवाना), भाड़ मुंजवाना, लोहार, सुनार आदिका काम करना और इंटोंका पकाना आदि कार्य मुक्तिके इच्छुक जनोंको छोड़ देना चाहिये ।।४०७॥ लाभके लिए भार ढोनेवाले घोड़े, भैसे, बेल और गधोंको नहीं रखना चाहिये। तथा नख, हड्डी और त्वचा (खाल) का विक्रय भी नहीं करना चाहिये ॥४०८।। इसी प्रकार लोणी, मक्खन, चर्वी, मदिरा और मधु, भांग, अफीम, गांजा आदि वस्तुओंका भी विक्रय नहीं करना चाहिये। तथा द्विपद (दासी-दास आदि) और चतुष्पद (चार पैरवाले बैल आदि जानवरों) का विक्रय करना कहींपर भी हितके लिए नहीं माना गया है ॥४०९॥ श्रावकको गाड़ो आदिका चलाना, घट आदिका बेचना और चित्रलेप आदि कार्य भी दूरसे ही छोड़ देना चाहिये ॥४१०। इसी प्रकार बुहारी, पीजरे आदि यन्त्र, बन्दूक, वलवार,
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